सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी केंद्र राज्यों के कानून कैसे अटका सकता है?
सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की शक्तियों पर लगाम लगा दी है, लेकिन केंद्र चाहे तो अब भी राज्यों की विधायी प्रक्रिया को टालने या रोकने का काम कर सकता है
सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि राज्यपाल जनता द्वारा चुनी गई विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को मनचाहे तरीके से लटकाए नहीं रख सकते. तमिलनाडु सरकार से जुड़े हालिया मामले में कोर्ट का कहना था कि राज्यपाल को किसी विधेयक पर एक उचित और संवैधानिक रूप से अपेक्षित समय सीमा के भीतर निर्णय लेना होगा — फिर चाहे वह फैसला स्वीकृति का हो या अस्वीकृति का.
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अगर किसी विधेयक को राज्यपाल ख़ारिज कर दें या पुनर्विचार के लिए वापस भेज दें, तो विधानसभा द्वारा पुनः पारित किए जाने पर राज्यपाल उस विधेयक को स्वीकृत करने के लिए बाध्य होंगे. कोर्ट का यह भी कहना था कि राज्यपाल किसी विधेयक को केवल तभी राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं जब वह पहली बार उनके पास आया हो. विधेयक को दोबारा पारित किए जाने की स्थिति में राज्यपाल के पास यह विकल्प नहीं रहता. यह फैसला विशेषकर उन राज्यों में, जहां राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच राजनीतिक टकराव की स्थिति है, केंद्र-राज्य संबंधों पर दूरगामी असर डाल सकता है.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने राज्यपालों के पास मौजूद विवेकाधिकार को सीमित तो किया है, लेकिन क्या इसका मतलब यह हुआ कि अब केंद्र सरकार किसी राज्य के विधायी एजेंडे को प्रभावित करने, उसे टालने या विफल करने की स्थिति में नहीं होगी? क्या राज्यपालों के पास — और उनके माध्यम से केंद्र के पास — अब भी ऐसा करने के लिए कोई संवैधानिक या राजनीतिक औज़ार शेष हैं?
संविधान के अनुच्छेद 200 के अनुसार, किसी विधेयक को पेश किए जाने पर राज्यपाल चार विकल्पों में से किसी एक को चुन सकते हैं: उसे स्वीकृति देना; स्वीकृति न देना; विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधानसभा को वापस भेजना; या उस पर ख़ुद विचार करने के बजाय उसे राष्ट्रपति के पास भेज देना.
अनुच्छेद 200 यह भी कहता है कि अगर विधेयक को विधानसभा पुनः पारित कर देती है, तो राज्यपाल उस पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य होंगे. लेकिन संविधान इन कार्यों को करने की कोई समय सीमा तय नहीं करता. उसकी इस खामोशी का फायदा उठाकर कई बार विपरीत ध्रुवों से आने वाले राज्यपाल विधेयकों को सालों तक लंबित रखते रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा फैसले ने इस खामी को कुछ हद तक सीमित कर दिया है. तो अब सवाल यह है कि किसी विवादास्पद कानून को बनने से रोकने या फिर दिल्ली में बैठे अपने राजनीतिक आकाओं को संतुष्ट करने के लिए राज्यपाल अब क्या कर सकते हैं?
अब राज्यपाल किसी विधेयक को हमेशा के लिए कानून बनने से नहीं रोक सकते. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनके पास कोई ताक़त ही नहीं बची है. राज्यपाल अब भी राज्य की विधायी प्रक्रिया में कई तरह की रुकावटें खड़ी कर सकते हैं — चाहे वह सही कारणों से हो या गलत. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है कि राज्यपालों को इससे जुड़े विभिन्न चरणों पर एक से तीन महीने के भीतर अपना निर्णय लेना होगा. अब यदि कोई राज्यपाल किसी विधेयक को लटकाकर रखना चाहे, तो वह इसे जितना संभव हो उतने चरणों में खींच सकता है और हर चरण में अधिकतम समय ले सकता है.
यानी पहले तो राज्यपाल किसी विधेयक को स्वीकृति देने से मना करने में ही कुछ महीने लगा सकते हैं, फिर उसके दोबारा आने की स्थिति में हस्ताक्षर करने से पहले उसे फिर से कुछ महीने लटकाकर रख सकते हैं. अपनी इस देरी को वह सवाल उठाकर, स्पष्टीकरण मांगकर या विधेयक का “अध्ययन” करने का दावा करके जायज़ ठहरा सकते हैं. कुल मिलाकर, ऐसी साधारण तरकीबों से वे सामान्य विधेयकों को भी महीनों तक अटकाकर रख सकते हैं.
लेकिन इस मामले में अगर राज्यपाल के पास सबसे प्रभावशाली कोई औज़ार है तो वह है विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेज देना. अगर किसी राज्यपाल को लगता है कि कोई विधेयक संविधान के खिलाफ है, राष्ट्रीय हितों को प्रभावित करता है या उच्च न्यायालय की शक्तियों को कमज़ोर करता है, तो वह उसे राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं. एक बार ऐसा किए जाने के बाद संबंधित विधेयक पर राज्यपाल की भूमिका समाप्त हो जाती है. अब उस पर अंतिम फैसला राष्ट्रपति को लेना होता है, जो केंद्र सरकार की सलाह पर काम करते हैं.
संविधान का अनुच्छेद 201 कहता है: “जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित किया जाता है, तो राष्ट्रपति यह फैसला करेंगे कि वे उस विधेयक को स्वीकृति देते हैं या नहीं…”
राज्यपाल की तरह राष्ट्रपति भी विधेयक को पुनर्विचार के लिए राज्य विधानसभा के पास भेज सकते हैं. लेकिन इसके आगे दोनों के रास्ते अलग हो जाते हैं. अनुच्छेद 200 — जो राज्यपाल को पुनः पारित विधेयक पर अपनी मोहर लगाने के लिए बाध्य करता है — के विपरीत, अनुच्छेद 201 राष्ट्रपति पर ऐसी कोई बाध्यता नहीं डालता. ऐसे में राष्ट्रपति अगर चाहें तो पुनः पारित होकर आए विधेयक को भी स्वीकृति देने से इनकार कर सकते हैं.
राज्यपालों पर जो संवैधानिक सीमाएं लागू होती हैं, वे राष्ट्रपति पर लागू नहीं होतीं. ऊपर से सुप्रीम कोर्ट के फैसले में भी राष्ट्रपति के विवेकाधिकार के बारे में कोई चर्चा नहीं की गई है. इसका मतलब यह है कि अपने पास किसी बिल के पहली या दूसरी बार पहुंचने पर भी न केवल राष्ट्रपति उसे अपनी स्वीकृति देने से इनकार कर सकते हैं, बल्कि चाहें तो उस विधेयक को महीनों, वर्षों या अनंतकाल तक लटकाकर भी रख सकते हैं. अगर राष्ट्रपति किसी विधेयक पर कोई निर्णय नहीं लेते हैं, तो संविधान या सुप्रीम कोर्ट राज्यों को इसके उपचार का कोई उपाय नहीं देते. इस वजह से राष्ट्रपति का कार्यालय केंद्र सरकार के लिए किसी राज्य के बिल में अड़ंगा लगाने का सबसे प्रभावशाली औज़ार बन जाता है.
ऐसा अक्सर कई राज्यों में होता रहा है. पंजाब में विश्वविद्यालयों के संचालन और सिख गुरुद्वारों से संबंधित कई विधेयक राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजे गए थे. महीनों बाद इनमें से कुछ का क्या हुआ, इसका कोई पता नहीं. तमिलनाडु में भी ऐसा ही हुआ, जब राज्यपाल ने दोबारा पारित 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की आलोचना करते हुए उन विधेयकों को क़ानून माने जाने का निर्णय दिया. लेकिन ऐसे मामलों में राष्ट्रपति की भूमिका पर उसने कुछ नहीं कहा.
ऐसे में साफ़ है कि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद भी, अगर चाहे तो एक अनुकूल राज्यपाल के ज़रिए केंद्र सरकार किसी राज्य की विधायी प्रक्रिया को कई तरह से प्रभावित कर सकती है. किसी विधेयक को अधिकतम चरणों में खींचकर, हर चरण में अधिकतम समय लगाकर या उसे राष्ट्रपति के पास भेजकर राज्यपाल अपने राज्य के विधायी कामों को या तो काफी धीमा कर सकते हैं या कुछ मामलों में पूरी तरह रोक भी सकते हैं — फिर चाहे वह सही कारणों से हो या गलत से.