क्या मांसाहार अहिंदू और अभारतीय है?
आयुर्वेद प्राचीन भारत में मांसाहार से जुड़ी जो जानकारियां देता है, वे हिंदू धर्म को शाकाहार से जोड़ने वाली सोच से मेल खाती नहीं दिखतीं
लोकसभा चुनावों के दौरान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उधमपुर में एक रैली को संबोधित करते हुए मांस खाने को भारतीय संस्कृति के ख़िलाफ़ बताया था. इससे कुछ समय पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख लालू प्रसाद यादव से मुलाक़ात करने गए थे. इसका वीडियो उनके यूट्यूब चैनल पर मौजूद है. इस वीडियो में लालू यादव, उनकी बेटी मीसा भारती और राहुल गांधी मटन पकाते और खाते दिखाई देते हैं. राहुल थोड़ा मटन अपनी बहन प्रियंका गांधी के लिए भी पैक करवा के ले जाते हैं. गरम चुनावी माहौल में, प्रधानमंत्री मोदी अपनी रैली में बग़ैर किसी का नाम लिए इसी संदर्भ में बात कर रहे थे. उन्होंने इसे मुगलिया मानसिकता बताते हुए कहा कि “सावन के महीने में मांस खाने का वीडियो डालकर ये लोगों को चिढ़ाना चाहते हैं.”
अगर गूगल पर ‘नॉनवेज फ़ूड कंट्रोवर्सी’ सर्च करें तो लगभग हर दूसरे महीने हमें देश में इससे जुड़े किसी विवाद की ख़बर पढ़ने को मिल जाएगी. फिर चाहे वह किसी रेस्तरां में ग्राहक को वेज के बजाय नॉनवेज डिश परोसने का मामला हो या सुप्रीम कोर्ट में नवरात्रि के दौरान नॉनवेज खाना मिलने पर कुछ वकीलों की नाराज़गी का. साल 2022 में इसी वजह से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में दो छात्र-समूहों के बीच हिंसा देखने को मिली थी. पिछली साल के अंत में कर्नाटक में हो रहे कन्नड़ साहित्य सम्मेलन के दौरान भी मांसाहार के मसले पर विवाद देखने को मिला था. ऐसे कई उदाहरण आसानी से दिए जा सकते हैं जो बताते हैं कि हमारे यहां शाकाहार बनाम मांसाहार की बहस न केवल देशव्यापी है बल्कि अलग-अलग स्वरूपों में लंबे समय से चलती रही है. लेकिन बीते कुछ सालों में यह इस मायने में बदल गई है कि अब खानपान, पहनावा और पूजा पद्धतियां निजी चुनाव से ज्यादा राजनीति साधने की चीज़ बनते गये हैं.
क्या मांसाहार अहिंदू और अभारतीय है?
शाकाहार बनाम मांसाहार वाली इस बहस की प्रवृत्ति पर आएं तो मांसाहार की आलोचना करते हुए सबसे पहले कहा जाता है कि यह भारतीय संस्कृति के खिलाफ है. इसका कारण यह है कि सनातन यानी हिंदू धर्म अहिंसा की बात करता है. इसमें किसी भी जीव-हत्या को महापाप माना गया है और अपने भोजन के लिए किसी जीव को मार देना तो बहुत ही बुरा है. यह तर्क भी दिया जाता है कि वेदों में मांस खाने को प्रतिबंधित किया गया है इसलिए इसे भारतीय जीवनशैली का हिस्सा बनाया जाना उचित नहीं है. मांसाहार को विदेश से आयातित बताकर भी इसे अभारतीय ठहराया जाता है.
लेकिन अगर भारतीय संस्कृति, परंपरा और जीवनशैली की प्रमाणिक और प्राचीन शाखाओं में शामिल आयुर्वेद की ओर देखें तो एक अलग ही कहानी पता चलती है. शरीर और मन के स्वास्थ्य को साधने की सीख देने वाली आयुर्वेद की किताबों में न केवल दवा बल्कि स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी आहार के रूप में भी मांस का सेवन करने की बात बहुत स्पष्टता से कही गई है. लेकिन इसके उदाहरणों पर विस्तार से चर्चा करने से पहले एक बात का जिक्र करना जरूरी है. चूंकि आयुर्वेद अथर्ववेद का उपांग है (वेदों की शाखा बताने वाले स्त्रोतों में से एक ‘चरणव्यूह सूत्र’ में आयुर्वेद को ऋग्वेद का उपांग बताया गया है) इसलिए यह कहना गलत नहीं लगता कि हमारी वैदिक परंपराओं में मांसाहार के प्रति अस्वीकार्यता का भाव नहीं था.
हिंदू धर्मशास्त्रों के मुताबिक आयुर्वेदीय वांग्मय का इतिहास ब्रह्मा, इन्द्र और धन्वंतरि जैसे देवों से जुड़ा हुआ है. यानी भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म में आस्था रखने वालों को इसके पुरातन होने पर कोई संशय नहीं होना चाहिए. ऊपर से आयुर्वेद को रचने वाले तीनों महान ऋषि - चरक, वाग्भट और सुश्रुत - कम से कम आज से पंद्रह सौ बरस पहले हुए होंगे. इनमें से भी चरक ऋषि का जीवनकाल ईसा से पूर्व का माना जाता है. इसका मतलब मांसाहार को आयातित कहना या यह कहना कि यह भारत में मुस्लिम या पश्चिमी लोगों द्वारा लाया गया, भी सही नहीं होना चाहिए.
आयुर्वेद के किन ग्रंथों में मांसाहार का जिक्र है?
आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों में से सबसे प्रमुख तीन ग्रंथ हैं – चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और अष्टांगहृदयम. सुश्रुत ऋषि द्वारा रची गई सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा पर अधिक जोर है. वहीं अन्य दो ग्रंथों के रचनाकार चरक ऋषि और वाग्भट, आहार-विहार के नियमों और स्वस्थ जीवनशैली के लिए ज़रूरी ज्ञान देते हैं. शारीरिक स्वास्थ्य के संदर्भ में आयुर्वेद का ज्ञान शरीर के तीन दोषों – वात, पित्त और कफ – को संतुलित रखने के उपायों पर आधारित है. वहीं, मानसिक स्वास्थ्य का आकलन इस बात से किया जाता है कि मन के तीन गुणों – सत, रज और तम – में से रज और तम गुण कम हों और सतोगुण प्रभावी हो. एक वाक्य में इन गुणों का समझें तो रजोगुण को आसक्ति से, तमोगुण को आलस्य से और सत्व गुण को आत्मज्ञान से जोड़कर देखा जाता है.
आयुर्वेद की पुस्तकों में मांसाहार के जिक्र पर विस्तार से चर्चा करें तो सबसे पहले चरक संहिता का संदर्भ दिया जा सकता है. चरक संहिता के प्रथम खंड - सूत्रस्थान - के सत्ताइसवें अध्याय में अन्नपान की व्याख्या की गई है. यानी यह अध्याय बताता है कि हमारे आहारद्रव्यों (भोजन या डाइट) में क्या-क्या शामिल होना चाहिए. इन आहारद्रव्यों को बारह वर्गों में बांटा गया है – शूकधान्यवर्ग (अनाज), शमीधान्यवर्ग (दालें), मांसवर्ग, शाकवर्ग, फलवर्ग, हरितवर्ग (सलाद), मद्यवर्ग, जलवर्ग, दुग्धवर्ग, इक्षुवर्ग (गुड़, शक्कर शहद), कृतान्नवर्ग (सूप, सत्तू वगैरह), आहारोपयोगी वर्ग (मसाले). अगर इनके क्रम पर ध्यान दें तो मांसाहार तीसरे नंबर पर आता है, इससे जुड़ा एक श्लोक भी है:
शरीरबृंहणे नान्यत् खाद्यं मांसाद् विशिष्यते
इति वर्गस्तृतीयोअयं मांसानां परिकीर्तितः
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम अध्याय 27 – श्लोक 87)
अनुवाद: शरीर को मोटा करने या ताकतवर बनाने में कोई भी भोजन मांस से बढ़कर नहीं है. इसलिए यहां पर अन्न और दालों के बाद तीसरा मुख्य भोजन मांसवर्ग में आने वाली चीजों को बताया गया है.
चरक ऋषि की तरह ऋषि वाग्भट भी अष्टांगहृदयम में सूत्रस्थानम् के छठे अध्याय - अन्नस्वरूपविज्ञान - में खाने-पीने की चीजों को सात समूहों में बांटते हैं. इनमें मांसवर्ग को चौथा स्थान दिया गया है. इससे जुड़ा श्लोक कुछ इस तरह है:
इत्यौषधवर्गः
शूकशिम्बीजपक्वान्नमांसशाकफलौषधैः
वर्गितैरन्नलेशोऽयमुक्तो नित्योपयोगिकः
(अष्टांगहृदयम, सूत्रस्थानम अध्याय 6 – श्लोक 172)
अनुवाद: इस प्रकार, यह औषधियों का वर्ग है: शूक (अनाज), शिम्बी (दाल), पक्वान्न (पका हुआ अन्न), मांस, शाक (सब्जियां), फल और औषधियां. इस वर्गीकरण में बताया गया अन्न नित्य उपयोग के लिए उपयुक्त है.
यह जानना दिलचस्प लग सकता है कि आज मांसाहार की बहस जहां चिकन-मटन से होते हुए बीफ या अधिकतम मछली और झींगे पर जाकर रुकने लगती है, वहीं आयुर्वेद में आठ प्रकार के मांस का वर्णन किया गया है. इनका वर्गीकरण इन नामों से किया गया है: मृग, विष्किर, प्रतुद, बिलेशय, प्रसह, महामृग, जलचर पक्षी और मत्स्यवर्ग. मृग और प्रसह समूह में जहां हिरण, गाय, सांभर, खरगोश. मुर्गा, बकरा, भेड़ वगैरह का मांस आता है. वहीं विष्किर और प्रतुद समूह में तीतर, मोर, कबूतर, गौरैया समेत कई तरह के पक्षी शामिल हैं. छोटे जीवों के समूह की बात करें तो वे बिलेशय कहे जाते हैं. इनमें बिल में रहने वाले जीव चूहा, सांप वगैरह शामिल हैं. जलचर पक्षियों में हंस, सारस, बगुले वगैरह आते हैं तो मत्स्यवर्ग में तमाम तरह की मछलियां, झींगे, शैवाल और कछुए सम्मिलित हैं. इन सबसे अलग महामृग समूह बड़े जीवों जैसे सुअर, भैंसा, हाथी वगैरह को शामिल कर लेता है.
आयुर्वेद की मांसाहार पर क्या राय है?
जीवों का इस तरह वर्गीकरण कर वागभट्ट और चरक ऋषि ने अपने ग्रंथों में यह भी स्पष्ट किया है कि किस जीव का मांस खाने से शरीर में वात, वित्त या कफ की मात्राओं पर क्या असर पड़ता है. उदाहरण के लिए आयुर्वेद कहता है कि गौरैया का मांस “मधुर, स्निग्ध, बलवर्धक और वीर्यवर्धक होता है. यह विशेष रूप से वात दोष के साथ-साथ त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) का शमन करने वाला माना जाता है.”(चरक संहिता, सूत्रस्थानम अध्याय 27) आयुर्वेदीय ग्रंथ यह भी बताते हैं कि किन परिस्थितियों में मांस खाना उचित नहीं है. उदाहरण के लिए, वह ज़ोर देकर यह कहता है कि अधिक वजन के लोगों को मांसाहार करने से बचना चाहिए. या फिर, बच्चे को जन्म देने के बाद महिलाओं को कम से कम 12 दिनों तक मांसाहार नहीं करना चाहिए.
चरक संहिता के उत्तरभाग – चिकित्सास्थान में अनगिनत रोगों के इलाज के लिए पथ्य के रूप में किस जीव का मांस किस तरह से पकाकर खाना है, इसकी भी जानकारी दी गई है. इसके अध्याय 24 में मदिरापान तक के लिए उचित मांस खाने की व्यवस्था देते हुए कहा गया है कि “जौ और गेहूँ से बने भोजन पर रहने वाले कफ-प्रधान व्यक्ति को गर्म चीजों का सेवन करना चाहिए तथा काली मिर्च के साथ पकाए गए जंगली जानवरों के मांस को खाना चाहिए और उसके बाद शराब पीनी चाहिए.”
आयुर्वेद में अच्छे मांस की पहचान भी बताई गई है. यह कहता है कि अगर मांस में नीली रेखाएं दिखाई देती हैं तो उसे नहीं पकाया जाना चाहिए, वह जहरीला हो सकता है. सामान्य परिस्थितियों में किस तरह का मांस खाना चाहिए इससे जुड़ा श्लोक कुछ इस तरह है:
मांसं सद्योहतं शुद्धं वयःस्थं च भजेत् त्यजेत्
मृतं कृशं भृशं मेद्यं व्याधिवारिविषैर्हतम्
(अष्टांगहृदयम, सूत्रस्थानम अध्याय 6 – श्लोक 68)
अनुवाद: तुरंत मारे गए, युवा प्राणी के ठीक तरह से साफ किए गए मांस का सेवन करना चाहिए. खुद से मरने वाले, बहुत कमजोर, बहुत चर्बी वाले जानवरों और किसी बीमारी से, पानी में डूबकर या किसी भी तरह के जहर से मरने वाले जीव का मांस नहीं खाना चाहिए.
आज के समय में नॉनवेज मेन्यू के कुछ प्रचलित विकल्पों के बारे में आयुर्वेद की राय देखें तो चिकन और मछली के बारे में आयुर्वेद कहता है कि यह मांस चिकनाहट से भरा, तासीर में गर्म, ताकत और वजन बढ़ाने वाला होता है. इन्हें कफ बढ़ाने वाला और पचने में भारी बताया गया है. इसलिए यह उन लोगों के लिए उपयुक्त भोजन बन जाता है जिनके शरीर में वात अधिक होता है. वहीं, मटन यानी बकरे के मांस को आयुर्वेद में सबसे उपयुक्त बताया गया है जिससे जुड़ा श्लोक इस तरह है:
नातिशीतगुरूस्निग्धं मांसमाजमदोषलम्
शरीरधातु सामान्यादनभिष्यन्दि बृंहणम्
(चरकसंहिता, सूत्रस्थानम अध्याय 27 – श्लोक 61)
अनुवाद: बकरे का मांस न तो तासीर में बहुत ठंडा, न बहुत देर से पचने वाला और न ही बहुत अधिक चिकनाई वाला होता है. इसलिए बकरे का मांस शरीर में किसी भी दोष को नहीं बढ़ाता है. मनुष्य और बकरे के मांस के गुण समान होने के चलते यह मांस सबसे उपयुक्त है.
बीफ यानी गाय या भैंस के मांस की बात करें तो जैसा कि हम चर्चा कर चुके हैं, यह मृगमांसों के समूह में आता है. आयुर्वेद में भैंस के मांस को अधिक चिकनाई वाला, गर्म, भारी, पौष्टिक और कामोद्दीपक बताया गया है (चरक संहिता, सूत्रस्थानम अध्याय 27 - श्लोक 80). चूंकि यह मोटापा और नींद बढ़ाने वाला भी होता है इसलिए आयुर्वेद के कुछ व्याख्याकार इसे छह महीने सोने वाले भीमकाय कुम्भकर्ण का प्रिय भोजन मानते हैं. वहीं, सबसे अधिक विवादित रहने वाले गौमांस के बारे में आयुर्वेद कहता है कि इसका सेवन करने से सूखी खांसी, जुकाम, कभी भी होने वाला बुखार, थकान, कमजोरी और वातरोग दूर होते हैं. इससे जुड़ा श्लोक कुछ इस तरह है:
शुष्कासश्रमात्यग्निविषमज्वरपीनसान् कार्श्यं
केवलवातांश्च गोमांस सन्नियच्छति
(अष्टांगहृदयम, सूत्रस्थानम अध्याय 6 - श्लोक 65)
अनुवाद: गाय के मांस का सेवन करने से सूखी खांसी, थकावट, अत्यधिक जठराग्नि (एसिडिटी), पुराना बुख़ार, सर्दी-जुकाम, दुबलापन और वातरोगों का विनाश होता है.
हालांकि, इन खूबियों के बावजूद, आचार्य चरक इसे मृगमांसों में सबसे अधिक अपथ्य (प्रतिकूल भोजन, चरक संहिता अध्याय 25 - श्लोक 39) मानते हैं. उनका कहना है कि गोमांस वात को बढ़ाता है और पाचन को धीमा करता है. यही नहीं, आचार्य वाग्भट इसे निंदित भोजन कहते हुए इससे दूर रहने की सलाह देते हैं. कुल मिलाकर आयुर्वेद गोमांस को कुछ स्थितियों में औषधीय रूप से इस्तेमाल करने की बात तो करता है लेकिन इसके नियमित सेवन से परहेज करने की सलाह भी देता है.
इस आलेख में ऊपर बताए गए मांस के वर्गीकरण को देखें तो ऐसा लग सकता है कि आयुर्वेद मनुष्य को छोड़कर बाकी सभी जीव को भोजन बना लेने की बात कहता है. लेकिन ऐसा है नहीं. व्याख्याकारों के मुताबिक आयुर्वेद हर तरह के संतुलन की बात कहता है. इसमें अन्न, दूध और मांसाहार को अलग-अलग परिस्थितियों और जरूरत के हिसाब से खाने लायक बताया गया है और आवश्यक न होने पर मांस तो दूर पानी भी पीने से मना किया गया है. चरक संहिता में इससे जुड़ा श्लोक कुछ इस तरह है:
अन्नं वृत्तिकारणां श्रेष्ठम, क्षीरं जीवनीयानां, मांसं बृंहणीयानां
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् अध्याय 25 – श्लोक 40)
अर्थात, जीवन यापन के लिए अन्न सर्वश्रेष्ठ आहार है, जीवन देने में दूध सबसे अच्छा है और शरीर को बढ़ाने या ताकत देने में मांस सबसे उपयुक्त है.
लगभग सभी तरह के जीवों को भोजन के विकल्प की तरह बताए जाने पर लौटें तो आयुर्वेद कहता है कि मनुष्य अपनी शारीरिक जरूरत के मुताबिक उपयुक्त जीव के मांस का उपयोग दवा या पथ्य की तरह कर सकता है. जहां तक सिर्फ भोजन या स्वाद के लिए जीवहत्या का सवाल है, आयुर्वेद के कई व्याख्याकार इसे गलत ठहराते हैं. लेकिन इसके मूल लेखकों द्वारा दिया गया न तो कोई ऐसा श्लोक मिलता है जो ऐसा करने की बात कहता हो न कोई ऐसा जो ऐसा न करने की बात कहता हो. इस संबंध में कुछ व्याख्याकार मनुस्मृति के एक श्लोक का हवाला जरूर देते हैं: ‘भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बु्द्धिजीविनः’. यानी, सभी तरह के अस्तित्वों में जीवधारी मुख्य हैं और सभी जीवधारियों में मनुष्य प्रधान है. इस तरह यह कहा जा सकता है कि हमारे धर्मग्रंथ मनुष्य के जीवन या भलाई के लिए अन्य जीवों के बलिदान को तार्किक मानते हैं या कम से कम पाप की तरह नहीं देखते हैं.
(यह सत्याग्रह की पुरानी वेबसाइट पर प्रकाशित आलेख का संपादित संस्करण है.)