सोनिया और राहुल गांधी

राजनीति | कांग्रेस

अपनी सबसे बड़ी खासियतें खोने के बाद भी क्या कांग्रेस खुद को 135 साल पुरानी पार्टी कह सकती है?

जो कांग्रेस कभी देश का आईना हुआ करती थी आज उसे खुद आईना देखने की जरूरत है

विकास बहुगुणा | 29 अगस्त 2020 | फोटो : कांग्रेस / ट्विटर

‘इस चिट्ठी पर दस्तखत करने वाले नेताओं का कांग्रेस के लिए समर्पण राहुल गांधी की तुलना में निश्चित रूप से कहीं ज्यादा है.’

कांग्रेस के 23 बड़े नेताओं की एक चिट्ठी के बाद पार्टी के भीतर उठे तूफान और इसके अंजाम पर यह बात बीते दिनों भाजपा नेका वडक्कन ने कही. सोनिया गांधी को लिखी गई इस चिट्ठी में पार्टी के पुर्नगठन सहित एक ऐसा नेतृत्व लाने की मांग की गई थी जो दिखे भी और सक्रिय भी रहे. लेकिन कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में इन बातों और इन्हें कहने वालों को किनारे कर दिया गया.

इस तरह यह तय हो गया है कि अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर अभी सोनिया गांधी ही पार्टी की कमान थामे रहेंगी. दो दशक से भी ज्यादा समय कांग्रेस में बिताने वाले टॉम वडक्कन का इस पूरे घटनाक्रम पर टिप्पणी करते हुए यह भी कहना था, ‘आईना टूट चुका है. आईना जब टूट जाता है तो इसे जोड़ा नहीं जा सकता. आपको इसे फेंकना पड़ता है.’

आईना टूटने वाली बात मौजूदा हालात में कांग्रेस के लिए एक सटीक रूपक लगती है. कांग्रेस कभी वास्तव में भारत का आईना हुआ करती थी. पार्टी देश के संघर्षों और उसकी आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती थी. देश की एक बड़ी आबादी उसके साथ खुद को जोड़कर देखती थी. यही वजह रही कि आजादी के बाद एक लंबे समय तक देश में उसका वर्चस्व रहा.

लेकिन अब स्थिति पलट चुकी है. आईना वास्तव में टूट चुका नजर आता है. कांग्रेस लगातार दो आम चुनाव हार चुकी है. राज्यों में भी उसकी स्थिति खस्ताहाल है. पार्टी के 23 नेताओं ने सोनिया गांधी को जो चिट्ठी लिखी है उसमें भी कहा गया है कि देश के लोग खास कर युवा, भाजपा और नरेंद्र मोदी पर ज्यादा भरोसा करते हैं. कांग्रेस के पतन की इस प्रक्रिया को गौर से देखें तो पता चलता है कि पार्टी ने अपनी वे लगभग सारी ही विशेषताएं गंवा दी हैं जो कभी उसकी सबसे बड़ी ताकत हुआ करती थीं.

पूरे भारत की पार्टी

जो खासियतें कांग्रेस को दूसरे दलों से अलग करती थीं उनमें से एक यह भी थी कि उसकी मौजूदगी भारत के हर इलाके में थी. यानी वह देशव्यापी पार्टी थी. लेकिन आज बाजी पलट चुकी है. अब उसके बजाय भारतीय जनता पार्टी पूरे भारत की पार्टी दिखती है.

इसका अंदाजा इस दिलचस्प तथ्य से भी लगाया जा सकता है. 1952 में जब देश में पहला आम चुनाव हुआ तो कांग्रेस को 45 फीसदी वोट हासिल हुए थे. 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में ठीक यही आंकड़ा भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए के पास आ गया. यानी उसे 45 फीसदी मतदाताओं ने अपना समर्थन दिया. 2014 के 44 सीटों के आंकड़े में सिर्फ आठ फीसदी की बढ़ोतरी कर सकी कांग्रेस का वोट शेयर महज 19.5 फीसदी रहा. राज्यों में भी उसका दायरा सिमटता गया है. आज देश में महज छह राज्य या केंद्र शासित प्रदेश हैं जहां उसकी सरकार है. इनमें भी दो ऐसे हैं जहां वह जूनियर पार्टनर है.

सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ. इसका एक जवाब यह है कि बीते कुछ समय के दौरान कांग्रेस संगठन से लेकर मुद्दे खड़े करने तक हर मोर्चे पर भाजपा से पिछड़ती गई. अपने वर्चस्व वाले दिनों में उसके पास जम्मू-कश्मीर से केरल और गुजरात से असम तक एक प्रभावशाली संगठन हुआ करता था. उत्तर प्रदेश में गोविंद वल्लभ पंत से लेकर तमिलनाडु में सी राजगोपालाचारी तक हर इलाके में पार्टी के पास कद्दावर और जमीनी नेता थे. आज कमोबेश यही बात भाजपा के बारे में कही जा सकती है. संगठनात्मक ढांचे और मजबूत कैडर के मोर्चे पर कांग्रेस उसके सामने कहीं नहीं ठहरती. जैसा कि अमेरिका की मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर मोहम्मद अय्यूब अपने एक लेख में कहते हैं, ‘अपने पितृ संगठन आरएसएस की बदौलत भाजपा एक कैडर आधारित पार्टी है जिसके सदस्यों के भीतर संगठन के अनुशासन की भावना भरी हुई है.’ कांग्रेस के साथ स्थिति उलट है जिसका अंदाजा हाल के सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रकरणों से भी लगता है.

इसके अलावा कांग्रेस बीते कुछ समय से ऐसे विमर्श यानी नैरेटिव और नारे खड़े करने में भी असफल रही है जो मतदाताओं को आकर्षित कर सकें. एक समय था जब जवाहर लाल नेहरू के ‘आराम हराम है’ या लाल बहादुर शास्त्री के ‘जय जवान, जय किसान’ जैसे नारे जनता की जुबान पर होते थे. उसके दिग्गजों की कल्पनाएं देश का भविष्य तय किया करती थीं. जैसा कि अपने एक लेख में प्रख्यात इतिहासकार इरफान हबीब कहते हैं, ‘नेहरू का मानना था कि आर्थिक विकास को बाजार की ताकतों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, बल्कि योजना के जरिए इसे राज्‍य-निर्देशित होना चाहिए.’ ऐसा ही हुआ भी.

लेकिन वे दिन बीते जमाने हो गए. बीते कुछ समय से रफाल मुद्दे पर भाजपा को घेरने की कोशिश हो या ‘चौकीदार चोर’ है का नारा या फिर सॉफ्ट हिंदुत्व, पार्टी को हर मोर्चे पर असफलता मिली है. वह भविष्य में कैसा भारत चाहती है, इसे लेकर भी वह कोई स्पष्ट नजरिया लोगों के सामने रखने में नाकामयाब दिखती है. उधर, उसकी प्रतिद्वंदी भाजपा राष्ट्रवाद से लेकर ‘सबका साथ सबका विकास’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ तक लगातार नये विमर्श और नारे खड़े करने में सफल रही है. इसका फल उसे लगातार दो लोकसभा चुनावों और उत्तर प्रदेश जैसे कई अहम राज्यों की सत्ता के रूप में मिला है.

देशभक्ति

भारतीय स्वाधीनता संग्राम कांग्रेस के नेतृत्व में ही चला था. महात्मा गांधी से लेकर जवाहरलाल नेहरू तक पार्टी के कई नेता सालों जेल में रहे. असहयोग आंदोलन से लेकर सविनय अवज्ञा और नमक सत्याग्रह जैसे उसके आंदोलनों ने न सिर्फ ब्रिटिश सत्ता की चूलें हिला दीं बल्कि कांग्रेस को देशभक्ति का पर्याय भी बना दिया. आजादी के आंदोलन से मिली इस पुण्याई का पार्टी को आजादी के बाद भी काफी समय तक फायदा मिलता रहा. इसकी वजह यह थी कि इस आंदोलन का नेतृत्व करने वालों ने अब देश के नेतृत्व की बागडोर संभाल ली थी. एक जमाने का यह पोस्टर भी इसका उदाहरण है जिसमें लिखा गया है कि कांग्रेस उम्मीदवार को वोट देकर लोग अपने राष्ट्र प्रेम का परिचय दें.’

आज भी पार्टी खुद को देशभक्त बताने के लिए स्वाधीनता संग्राम का हवाला देती है. लेकिन अब लोगों की एक बड़ी संख्या देशभक्ति को कांग्रेस से जोड़कर नहीं देखती. उल्टे सोशल मीडिया पर एक तबका तो कांग्रेस को देशद्रोही या फिर देशद्रोहियों का साथ देने वाला कहता है. भाजपा पर निशाना साधते हुए पार्टी के नेता भले ही कहें कि जिनका देश की आजादी में कोई योगदान नहीं वे देशभक्ति की बात कर रहे हैं, लेकिन सच यही है कि आज देशभक्ति एक ऐसा ब्रांड हो चुकी है जिस पर भाजपा का ही कब्जा दिखता है. भाजपा ने हिंदुत्व, धर्म, राष्ट्र, देश, नारेबाजी, देशभक्ति औऱ कांग्रेस विरोध का ऐसा एक मिश्रण बनाया है जिससे पार पाना फिलहाल कांग्रेस के बस की बात नहीं लगती है. ऐसे में कांग्रेस अगर संतुलित बात करती है तो अक्सर देशद्रोही करार दे दी जाती है. और अगर वह इससे दायें कुछ करती है तो अपनी विरासत से दूर जाती और भाजपा की भौंड़ी नकल करती दिखती है.

दिग्गजों की विरासत

महात्मा गांधी से लेकर जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और इंदिरा गांधी तक कांग्रेस के पास चमकदार नामों का एक लंबा सिलसिला रहा है. लेकिन इस मजबूत विरासत का कुछ हिस्सा उससे छिन गया तो कुछ उसके लिए बोझ बन गया. और कांग्रेस इसे रोकने में असफल रही.

सरदार वल्लभ भाई पटेल का ही उदाहरण लें. कांग्रेस के दिग्गज और देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद भाजपा के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक (आरएसएस) पर प्रतिबंध लगा दिया था. उनका कहना था कि इस संगठन की गतिविधियां देश के लिए खतरा हैं. लेकिन आज ऐसा लगता है जैसे भाजपा उन्हीं सरदार पटेल को कांग्रेस से छीन चुकी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार कह चुके हैं कि देश के पहले उप-प्रधानमंत्री को कांग्रेस ने वह सम्मान नहीं दिया जिसके वे हकदार थे. दो साल पहले वे गुजरात में सरदार पटेल की 182 मीटर ऊंची प्रतिमा ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ का भी अनावरण कर चुके हैं. यह दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा है. यही नहीं, पिछले साल भी वे सरदार पटेल के जन्मदिन यानी 31 अक्टूबर को उन्हें श्रद्धांजलि देने ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ गए और कहा कि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी करने का उनका फैसला देश के पहले गृहमंत्री को समर्पित है.

कुछ ऐसा ही सुभाष चंद्र बोस या फिर महात्मा गांधी जैसे नेताओं के मामले में होता दिखता है. इस पर कांग्रेस सिर्फ यह तर्क देती दिखती है कि भाजपा के पास अपना कोई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं है इसलिए वह ऐसा करती है. लेकिन इससे कोई फर्क पड़ता नहीं दिखता. मसलन एक बड़ा तबका अब यह मानता दिखता है कि सरदार वल्लभ पटेल या सुभाष चंद्र बोस को भाजपा ने ही वह सम्मान दिया है जिसके वे हकदार थे.

इसी तरह कभी जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी जैसे नाम कांग्रेस की ताकत हुआ करते थे. लेकिन कांग्रेस की वंशवाद की राजनीति और भाजपा की प्रचार मशीनरी ने इस स्थिति को उल्टा कर दिया है. वर्तमान कांग्रेस ने इनकी विरासत का फायदा उठाया तो उस विरासत को वर्तमान कांग्रेस की गलतियों और गिरावट का खामियाज़ा भुगतना पड़ा. इसके चलते बहुत से लोग कश्मीर सहित देश की ज्यादातर समस्याओं के लिए इन नेताओं को ही जिम्मेदार मानते हैं. और अब कांग्रेस इनका फायदा उस तरह से उठाने की स्थिति में नहीं है जैसे पहले उठाया करती थी.

धर्मनिरपेक्षता

धर्मनिरपेक्षता को कभी कांग्रेस ने अपनी ताकत बनाया था. दरअसल 1947 में जब देश आजाद हुआ और इसके बाद संविधान सभा बनी तो इस पर काफी मंथन हुआ कि धर्म और राज्य व्यवस्था के बीच क्या संबंध हो. इस मुद्दे को लेकर संविधान सभा में कई विचारधाराएं आपस में टकरा रही थीं. एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की धारा थी जिसका मत था कि राज्य सभी धर्मों का बराबर सम्मान करे. दूसरी धारा में हिंदू परंपरावादी थे जिनका मानना था कि राज्य व्यवस्था को आयुर्वेद से लेकर हिंदी तक उन सारी पहचानों का संरक्षण करना चाहिए जो बहुसंख्यक धर्म से जुड़ती हैं. इसके अलावा एक धारा हिंदू राष्ट्रवादियों की भी थी जो भारत की पहचान हिंदू धर्म में देखती थी, हालांकि संविधान सभा में इसका प्रतिनिधित्व नगण्य था.

काफी दबाव के बाद भी जवाहरलाल नेहरू और संविधान सभा के अध्यक्ष बीआर अंबेडकर पूरी बहस को इस नतीजे तक ले जाने में सफल रहे कि भारत की पहचान मिली-जुली होनी चाहिए जिसमें सब नागरिक बराबर हों. इसे सेक्युलर राज्य व्यवस्था कहा गया. इसकी व्याख्या करते हुए एक बार नेहरू ने कहा था, ‘सेक्युलर के लिए कोई सटीक हिंदी शब्द खोजना मुश्किल है. कुछ लोग सोचते हैं कि इसका मतलब धर्म के खिलाफ है. लेकिन यह सही नहीं है. इसका मतलब है कि राज्य व्यवस्था सभी धर्मों का बराबर सम्मान करती है और उन्हें समान अवसर देती है.’

जानकारों के मुताबिक नेहरू धर्मनिरपेक्षता को भारत के लिए बेहद अहम मानते थे क्योंकि उन्होंने देखा था कि किस तरह मुस्लिम सांप्रदायिकता ने देश के टुकड़े करवाए. इसलिए आजादी के बाद हिंदू समेत हर धर्म की सांप्रदायिकता को काबू में रखना उनकी प्राथमिकताओं में शामिल हो गया था.

1950 से लेकर 1970 तक भारत का यह सेक्युलर मॉडल काफी हद तक ठीक से चला. मुस्लिमों सहित सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों को विधायिकाओं में उचित प्रतिनिधित्व मिला. धार्मिक दंगे भी काफी कम हो गए. बहुत सीमा तक इसका श्रेय जवाहरलाल नेहरू को दिया जाता है जिन्होंने भरसक कोशिश की कि कोई भी नेता धर्म का इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए न करे.

लेकिन 1970 के दशक में जब पहली बार केंद्र में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई तो यह स्थिति बदलने लगी. 1980 में सत्ता में लौटीं इंदिरा गांधी ने धार्मिक तुष्टीकरण शुरू किया. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देना, पंजाब में अकालियों की टक्कर में भिंडरावाले को खड़ा करना और हरिद्वार में विश्व हिंदू परिषद के समर्थन से बने भारत माता मंदिर का उद्घाटन इसके उदाहरणों में गिने जाते हैं. उनके बेटे राजीव गांधी ने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटा और इससे खुद पर लगने वाले मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोपों की काट राम जन्मभूमि के ताले खुलवाकर करने की कोशिश की. माना जाता है कि इससे उस हिंदू सांप्रदायिकता का रास्ता खुल गया जिसे जवाहरलाल नेहरू किसी भी हाल में उभरने नहीं देना चाहते थे. इसके बाद भाजपा बहुसंख्यक तुष्टीकरण की राह पर चली और बाकी इतिहास है.

अब आलम यह है कि सार्वजनिक विमर्श में धर्मनिरपेक्षता शब्द को एक बड़ा वर्ग गाली की तरह इस्तेमाल करता है. कई जानकारों के मुताबिक इसकी वजह कांग्रेस ही है जिसने हमेशा इस मामले में दोहरा बर्ताव किया है. इनके मुताबिक पार्टी सब धर्मों के साथ बराबरी के बर्ताव की बात तो करती रही, लेकिन व्यवहार में वह ऐसा करती नहीं दिखी. उदाहरण के लिए हिंदू धर्म की रूढ़ियों को दूर करने के लिए हिंदू कोड बिल तो लाया गया, लेकिन भारत के मुसलमानों के मामले में ऐसा नहीं किया गया. इससे धीरे-धीरे यह धारणा बनने लगी कि धर्मनिरेपक्षता की बात करने वाली कांग्रेस मुस्लिम तुष्टिकरण करती है. शाहबानो प्रकरण जैसे उदाहरणों ने इस धारणा को पुष्ट किया. लेकिन कांग्रेस ने इसका जवाब हमेशा यह कहकर दिया कि यह हिंदुत्ववादी संगठनों का प्रचार है. आखिरकार 2014 में हुए आम चुनाव में बुरी गत के बाद इसकी समीक्षा करने के लिए बनी पार्टी की एक समिति ने माना कि मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पार्टी को ले डूबी.

इसके बाद कांग्रेस ने अपने रुख में बदलाव किया. भाजपा का मुकाबला करने के लिए वह सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर चलने की कोशिश करने लगी. मसलन राहुल गांधी मंदिरों के दौरे करने लगे और खुद को शिवभक्त बताने लगे. लेकिन भाजपा की पिच पर खेलने की कांग्रेस की यह कोशिश भी उसके काम नहीं आई. जानकारों के मुताबिक इससे यह संदेश गया कि पार्टी ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम समुदाय के तुष्टिकरण की गलती मान ली है और अब वह भूल सुधार कर रही है. इससे हिंदू वोटर तो उससे नहीं जुड़ा, उल्टे मुस्लिम वोटर भी उससे छिटकने लगा.

इस सबका नतीजा यह है कि कांग्रेस न सिर्फ अपने सबसे बुरे दौर में है बल्कि मौजूदा हालात को देखते हुए उसकी हालत बिन पतवार की कश्ती जैसी ही दिखती है. सोनिया गांधी एक साल से पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष हैं. लेकिन बहुत से लोग मानते हैं कि वे अपने स्वास्थ्य के चलते इस भूमिका के साथ न्याय नहीं कर पा रहीं. आम चुनाव की हार के बाद अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे चुके राहुल गांधी अब भी खुद को केंद्रीय भूमिका में रखे हुए हैं, लेकिन कई कांग्रेस नेताओं की मानें तो उनकी शिकायतों पर वे यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि वे अब अध्यक्ष नहीं हैं.

अपने एक लेख में पूर्व नौकरशाह और चर्चित लेखक पवन के वर्मा लिखते हैं, ‘सच ये है कि पार्टी एक ऐसे परिवार की बंधक बनी हुई है जो दो आम चुनावों में इसका खाता 44 से सिर्फ 52 तक पहुंचा सका.’ उनके मुताबिक कांग्रेस को नेतृत्व से लेकर संगठन तक बुनियादी बदलाव की जरूरत है और तभी वह एक ऐसा विश्वसनीय विपक्ष बन सकती है जिसकी लोकतंत्र को जरूरत होती है, सत्ता पक्ष बनने की बात तो अभी दूर है.

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