कोरोना संकट

राजनीति | विचार-विमर्श

भारत: नरेंद्र मोदी के राज में

वर्तमान शासन की तीन मुख्य विशेषताएं हैं - अयोग्यता, सांप्रदायिकता और व्यक्तिवाद

रामचंद्र गुहा | 04 मई 2021 | फोटो: स्क्रीनशॉट

इंग्लैंड अगले फुटबॉल विश्व कप की मेजबानी करने वाला है. सबसे प्रतिष्ठित इस खेल आयोजन की तैयारियों के तहत वहां के मशहूर वेंबली स्टेडियम को एक नया रूप दिया गया है. टूर्नामेंट शुरू होने से एक साल पहले ही नया स्टेडियम तैयार है. फुटबॉल संघ के अध्यक्ष गर्व से बता रहे हैं कि यह अब दुनिया का सबसे बड़ा फुटबॉल स्टेडियम है जो क्षमता और आरामदेह सीटों के मामले में बर्लिन, रियो डे जेनेरियो या फिर बार्सिलोना के किसी भी स्टेडियम से आगे है.

दुनिया के सामने यह नया आयोजनस्थल पेश करने के लिए इंग्लैंड के पुराने प्रतिद्वंदी जर्मनी के साथ एक मैच रखा गया है. फुटबाल संघ ने इस मैच के लिए महारानी को भी आमंत्रित किया है. उन्हें घूमना पसंद है सो उन्होंने यह न्योता स्वीकार कर लिया है. वित्त मंत्री को भी बुलाया गया है और वे भी इस आयोजन में खुशी से शामिल हैं. खेल शुरू होने से ठीक पहले वित्त मंत्री महारानी से अनुरोध करते हैं कि वे नए स्टेडियम का उद्घाटन करें. वे एक बटन दबाती हैं और स्टेडियम के भीतर जाने वाले रास्ते पर लगे एक शिलापट्ट पर पड़ा परदा उठ जाता है. इस पर लिखा है: ‘बोरिस जॉनसन स्टेडियम, लंदन का उद्घाटन 24 फरवरी 2021 को महारानी एलिजाबेथ के कर कमलों से हुआ.’

जाहिर है यह कहानी सच्ची नहीं. भले ही यह सच है कि बोरिस जॉनसन को पब्लिसिटी की भूख है और विवादों से भी उनका चोली-दामन का साथ है. लेकिन अब इसी कहानी को नाम, शहर और खेल बदलकर देखिए और आप पाएंगे कि जो बात बेतुकी लग रही थी वह सच हो गई है. इसी साल 24 फरवरी को भारत और इंग्लैंड के बीच एक टेस्ट मैच से ठीक पहले अहमदाबाद में नरेंद्र मोदी क्रिकेट स्टेडियम का उद्घाटन हुआ. यह काम भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने किया जिनकी भूमिका भारतीय संविधान ने उसी तरह परिभाषित की है जो ब्रिटेन में सम्राट या महारानी (हालांकि भारत में यह पद एक ही परिवार के पास नहीं रहता) की होती है. रामनाथ कोविंद के बगल में भारत के गृह मंत्री अमित शाह खड़े थे जो ताकत और रसूख के लिहाज से केंद्र सरकार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद दूसरे नंबर पर आते हैं.

अपने जीते जी एक खेल स्टेडियम का नामकरण अपने नाम पर करवाकर नरेंद्र मोदी ने खुद को उस कुख्यात सूची में शामिल कर लिया है जिसमें किम द्वितीय सुंग और सद्दाम हुसैन जैसे लोग शामिल हैं. फिर भी जिस बात ने इसे और घृणित बनाया वह यह थी कि उस समय भारत 12 महीनों के एक दु:स्वप्न से उबर ही रहा था. भले ही कोविड-19 महामारी ने यहां उतनी जिंदगियां नहीं ली थीं जितनी यूरोप या फिर उत्तरी अमेरिका में, फिर भी अर्थव्यवस्था तो बदहाल थी ही. अप्रैल से जून 2020 तक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 23.9 फीसदी की गिरावट आ गई थी. कुछ अनुमानों की मानें तो इस दौरान 10 करोड़ से भी ज्यादा लोगों की नौकरियां चली गई थीं.

यह सच है कि 2020 के आखिरी महीनों में लगने लगा था कि कोविड का उठता ग्राफ अब समतल हो चला है. संक्रमण और मौतों के मामलों में काफी कमी आ गई थी. अब भारत को अपनी अर्थव्यवस्था संभालने और बिखरे सामाजिक ताने-बाने को बहाल करने की जरूरत थी. तो सवाल उठता है कि ऐसे वक्त में प्रधानमंत्री को इस भव्यता के साथ अपने अहं की सार्वजनिक तुष्टि क्यों जरूरी लगी?

जिस समय दक्षिण भारत में स्थित अपने घर में सुरक्षित और अब तक बुखार से मुक्त मैं यह लेख लिख रहा हूं, ठीक उसी वक्त मेरा देश कोरोना वायरस का नया केंद्र बन चुका है. भारत रोज ही संक्रमण के नए मामलों का रिकॉर्ड बना रहा है और यह पढ़कर घबराए और विदेशों में रह रहे मेरे दोस्त लगातार मेरा हाल-चाल पूछ रहे हैं. यहां ध्यान रखना होगा कि ये ‘आधिकारिक’ आंकड़े हैं और इन्हें वह सरकार जारी कर रही है जो सच के मामले में कंजूसी बरतने के लिए कुख्यात है. सीएनएन की एक हालिया रिपोर्ट में एक विशेषज्ञ के हवाले से कहा गया है कि मौतों का आंकड़ा दो से पांच गुना तक कम बताया जा रहा है. इसका मतलब है कि हो सकता है देश में मरने वालों की तादाद 10 लाख तक पहुंच गई हो. अभी आधिकारिक आंकड़े इसे करीब दो लाख बता रहे हैं. अनुमान है कि कम से कम मई के आखिर तक महामारी का ग्राफ बढ़ता रहेगा. तो यह आपदा किस पैमाने तक जाएगी, अनुमान लगाना असंभव है.

दुनिया के अखबारों और टीवी चैनलों पर अब भारत में ऑक्सीजन की कमी की खबरें और लगातार जलती चिताओं की तस्वीरें हैं. इसके साथ ही इस त्रासदी में मोदी सरकार की भूमिका साफ होती जा रही है. जब पहली बार इस वायरस के फैलने की खबरें आई थीं तो हमारे प्रधानमंत्री ने लगातार खतरे के संकेतों की उपेक्षा की. इस दौरान भी वे अपनी छवि और ब्रांड निर्माण के अभियान में लगे रहे.

लोकलुभावनवादी दूसरे नेताओं की तरह नरेंद्र मोदी को भी विशेषज्ञों की सलाह नहीं सुहाती. वे कहते भी रहे हैं कि ‘हार्वर्ड’ से ज्यादा वे ‘हार्ड वर्क’ को प्राथमिकता देते हैं. पिछले प्रधानमंत्री जनता से जुड़ी नीतियां बनाते हुए वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों से खूब सलाह लेते थे. लेकिन नरेंद्र मोदी अपनी सहज वृत्ति पर ज्यादा भरोसा करते हैं. उनके शासन में पेशेवर नौकरशाही और यहां तक कि राजनयिक वर्ग भी राजनीतिक होता गया है और उनका नेता और उसकी विचारधारा के साथ निष्ठा रखने पर जोर लगातार बढ़ा है. इस महामारी ने भारत के अस्तित्व से जुड़े एक संकट की तरफ ज्यादा ध्यान खींचा है और यह संकट है इसकी लोकतांत्रिक परंपराओं और मूल्यों के क्षरण का.

मैं आपको फरवरी 2020 में जाता हूं. नरेंद्र मोदी स्टेडियम के उद्घाटन से एक साल पहले ठीक इसी महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ अहमदाबाद का दौरा किया था. तब तक वायरस अपनी मौजूदगी का अहसास कराने लगा था, लेकिन दुनिया के सबसे अमीर और विशाल लोकतंत्रों के नेताओं को इसकी कोई फिक्र नहीं थी.

नरेंद्र मोदी चाहते थे कि डोनाल्ड ट्रंप उनकी तारीफ करें. डोनाल्ड ट्रंप चाहते थे कि 2020 के राष्ट्रपति चुनाव में नरेंद्र मोदी उन्हें भारतीय अमेरिकियों के वोट दिलवा दें. अहमदाबाद में इन दोनों लोकलुभावनवादी नेताओं ने साबरमती के किनारे स्थित महात्मा गांधी के आश्रम का दौरा किया और उनके प्रति सम्मान का प्रदर्शन किया. फिर नरेंद्र मोदी, डोनाल्ड ट्रंप को नई दिल्ली ले गए. वहां जब दोनों नेता वार्ताओं और भोज में मशगूल थे ठीक उसी समय भारत की राजधानी में दंगे छिड़ गए जिनमें मुस्लिम समुदाय को तुलनात्मक रूप से ज्यादा नुकसान हुआ.

पूरे फरवरी के दौरान नरेंद्र मोदी का जोर अपने अमेरिकी मित्र के दौरे की योजना बनाने पर रहा. इसके बाद मार्च के ज्यादातर हिस्से में प्रधानमंत्री और भाजपा का ध्यान मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिराने पर केंद्रित रहा जो सत्ताधारी विधायकों को प्रलोभन के जरिये बागी बनाकर किया गया.

11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 को महामारी घोषित कर दिया था. यूरोप में मौतों का आंकड़ा खतरनाक रूप से बढ़ रहा था. वायरस के बारे में जानकर भी नरेंद्र मोदी मध्य प्रदेश की सत्ता अपने हाथ में आने तक इंतजार करना चाहते थे. 23 मार्च को राज्य में भाजपा की सरकार ने शपथ ले ली. उसी दिन प्रधानमंत्री ने सूचना दी कि वे अगले दिन देशवासियों को संबोधित करेंगे. सबकी सांसें थम गईं. सब सोच रहे थे कि प्रधानमंत्री क्या कहने वाले हैं. नवंबर 2016 में देश के नाम एक संबोधन में उन्होंने घोषणा की थी कि चार घंटे बाद 500 और 1000 रु के नोट बंद हो जाएंगे. उस समय प्रचलित करेंसी में 86 फीसदी यही नोट थे.

रैलियों में अपने और अपनी पार्टी के लिए प्रचार करते हुए नरेंद्र मोदी आक्रामक अंदाज में दिखते हैं. वे ऊंची आवाज में तरह-तरह से अपने विरोधियों का मजाक उड़ाते हैं. लेकिन टेलिविजन पर प्रधानमंत्री के रूप में बोलते हुए उनका सुर नरम और परिवार के किसी मुखिया की तरह हो जा जाता है. वे आराम से बोलते हैं और उनकी शैली प्रवचन जैसी होती है. झटका आम तौर पर भाषण के आखिर में आता है. सो 24 मार्च 2020 की शाम अपने संबोधन में उन्होंने शुरुआत कोविड-19 से उपजे संकट के बारे में बात से की और फिर अचानक ऐलान कर दिया कि रात 12 बजे से यानी ठीक चार घंटे बाद समूचा भारत पूरे तीन हफ्ते के लिए लॉकडाउन रहेगा.

एक ही झटके में काम से हाथ धो चुके हजारों मजदूर बस या ट्रेन जैसे साधनों के अभाव में पैदल ही अपने गांवों की तरफ निकल पड़े. अपना सामान सिर पर रखकर जाते और जगह-जगह पुलिस की बर्बरता के शिकार हुए इन गरीब भारतीयों की तस्वीरें खूब वायरल हुईं. इन सिहराने वाली तस्वीरों ने कई विश्लेषकों को भारत के बंटवारे के दौरान ठोकरें खाते शरणार्थियों की याद दिलाई.

उधर, हमारे प्रधानमंत्री के लिए कोविड-19 का आगमन अपनी व्यक्तिकेंद्रित राजनीति को मजबूत करने का एक और मौका बन गया. इसका एक सबूत था उनके योजनाबद्ध भाषण. ऐसे ही एक भाषण के बारे में भारत का सार्वजनिक प्रसारक प्रसार भारती शेखी बघार रहा था कि जितने लोगों ने आईपीएल का फाइनल देखा उससे ज्यादा लोगों ने प्रधानमंत्री का भाषण सुना. दूसरा सबूत था, एक नए फंड का गठन. बड़ी सोच-समझ के साथ इसका नाम रखा गया पीएम केयर्स फंड जो सिटिजंस असिस्टेंस एंड रिलीफ इन इमरजेंसी सिचुएशंस का संक्षिप्त रूप था. इसकी वेबसाइट पर नरेंद्र मोदी की तस्वीर प्रमुखता से रखी गई जो इससे जुड़ी प्रचार सामग्री और शायद इस फंड की मदद से खरीदी गई चीजों पर भी थी.

फंड की कार्यप्रणाली अपारदर्शी थी. किसी को पता नहीं कि इसमें कितना पैसा इकट्ठा हुआ या फिर यह कैसे खर्च हुआ. सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर अनुरोध किया गया था कि अदालत इस फंड में वित्तीय पारदर्शिता बरतने का आदेश दे, लेकिन यह याचिका नामंजूर हो गई. जैसे जैसे 2020 के महीने आगे बढ़ते रहे, वैसे-वैसे महामारी को लेकर एक अतिआत्मविश्वास का भाव आता गया. सरकार में ही नहीं बल्कि एक बड़ी हद तक जनता में भी.

कुछ विशेषज्ञों ने दावा किया था कि यह वायरस भारत को बर्बाद कर देगा और इससे दसियों करोड़ लोग प्रभावित होंगे. लेकिन जब यह संख्या इससे कहीं कम रही तो नुक्ताचीनी करने वाले हमारे देशभक्तों ने उन्हें हड़काया. दिल्ली स्थित एक मशहूर संपादक ने लिखा, ‘हमारे नाले लाशों से नहीं पट रहे, हमारे अस्पतालों में बेड खत्म नहीं हुए. हमारे श्मशानों और कब्रिस्तानों में लकड़ी और जगह खत्म नहीं हुई.’ उनका कहना था कि भारत के किसी छोटे से इलाके में भी ऐसी स्थिति नहीं है कि ये विश्लेषक 1918 के स्पेनिश फ्लू से उसकी कोई डरावनी तुलना कर सकें. इस संपादक ने आगे लिखा, ‘ऐसा लग रहा है कि अच्छी खबर या अपेक्षित बुरी खबर की अनुपस्थिति वह सच है जो अंतरराष्ट्रीय समुदाय और भारत के भीतर भी बहुत से लोगों को नहीं पच रहा.’

दिसंबर 2020 में भारतीय क्रिकेट टीम ने एक टेस्ट सीरीज में ऑस्ट्रेलिया को उसके घर में ही मात दे दी. अगले महीने एक विश्वविद्यालय के छात्रों को अपने संबोधन में नरेंद्र मोदी ने इस जीत को कोविड पर देश की जीत की प्रस्तावना बताया. उनका कहना था, ‘हमारी इतनी बुरी हार हुई लेकिन उतनी ही तेजी से हम उबरे भी और अगले मैच में जीत हासिल की.’ प्रधानमंत्री ने आगे कहा, ‘आप लीक से हटकर सोचने और चलने से डरते नहीं हैं. आपके जैसी इसी युवा ऊर्जा ने कोरोना के खिलाफ अपनी लड़ाई में भी भारत को बहुत मजबूती दी है… भारत ने हालात से समझौता करने के बजाय, मुसीबत बढ़े इसका इंतजार करने के बजाय, तेजी से फैसले लिए, ‘प्रोएक्टिव’ होकर फैसले लिए. इसी का परिणाम है कि भारत वायरस से ज्यादा प्रभावी रूप से बढ़ पाया, प्रभावी रूप से लड़ पाया.’

यही वह अहंकार और अतिआत्मविश्वास था जो मोदी सरकार के फैसलों और कदमों में दिखता रहा. महामारी से निपटने के लिए वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की एक कोविड टास्क फोर्स बनी थी. लेकिन फरवरी और मार्च 2021 में इसकी एक भी बैठक नहीं हुई. क्योंकि प्रधानमंत्री ने संकेत दे दिया था कि ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम की तरह कोरोना वायरस को भी भारतीयों ने हरा दिया है.

अब तक यह पता चल ही चुका था कि ज्यादातर देश जिनमें दुनिया के सबसे धनी ऐसे देश भी शामिल हैं जिनका स्वास्थ्य तंत्र बेहद अत्याधुनिक है, वायरस की दूसरी लहर का सामना कर चुके हैं. ‘अगर हमने इसके बारे में पहले से सोच लिया होता’ मुंबई के एक नामी डॉक्टर कहते हैं, ‘तो हम अपने संसाधनों को बढ़ा सकते थे और खुद को और सुरक्षित बना सकते थे’ लेकिन ‘शायद जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को यह लगता था कि हम भगवान के द्वारा चुने गये देश हैं और हमें कुछ नहीं होने वाला.’ इसलिए अपने जीते-जागते भगवान में अपनी आस्था से लैस करीब 55000 लोग, जिनमें ज्यादातर मास्क नहीं पहने हुए थे, इंग्लैंड के खिलाफ भारतीय क्रिकेट टीम की हौसला अफज़ाई करने के लिए अहमदाबाद के नरेंद्र मोदी स्टेडियम में इकट्ठे हुए. यह फरवरी 2020 के आखिरी हफ्ते की बात है.

फरवरी और मार्च में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पश्चिम बंगाल के चुनावों में व्यस्त रहे. इस दौरान उन्होंने बहुत बड़ी-बड़ी रैलियां कीं जिनमें आम लोगों के साथ-साथ इन दोनों ने भी मास्क पहनना जरूरी नहीं समझा. 11 अप्रैल 2021 को यह साफ हो जाने के बाद कि भारत कोरोना वायरस की दूसरी लहर का सामना कर रहा है, आखिरकार कोविड टास्क फोर्स की बैठक हुई. लेकिन मोदी का ध्यान पश्चिम बंगाल के चुनावों पर ही लगा रहा. 17 अप्रैल को आसनसोल में हुई एक रैली में उनका कहना था, ‘मैंने ऐसी सभा पहली बार देखी है.’

तब तक भारत के श्मशान गृहों में जगह और लकड़ी खत्म हो चुकी थी लेकिन प्रधानमंत्री अपनी लोकप्रियता के गीत गा रहे थे. यह दुख की बात है कि जो वह कह रहे थे वह गलत नहीं था. आर्थिक मोर्चे और महामारी से निपटने में तमाम असफलताओं के बावजूद मोदी की लोकप्रियता में कोई खास कमी नहीं आई है. जनवरी के अंत में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक नमो की अप्रूवल रेटिंग 70 फीसदी से ज्यादा थी. अब जो हो रहा है, हो सकता है उससे इसमें कुछ कमी आई हो, लेकिन इस बात की संभावना कम ही है कि यह कमी एक सीमा से ज्यादा होगी.

प्रदर्शन और लोकप्रियता के बीच इस अंतर को कैसे समझा जाए? मोदी की लोकप्रियता की एक वजह यह हो सकती है कि हिंदू बहुसंख्यकवाद की उनकी विचारधारा से बहुत सारे मतदाता जुड़ा हुआ महसूस करते हैं, खास कर उत्तर भारत के बड़े राज्यों में. मुसलमानों पर श्रेष्ठता की बात करके भाजपा निम्न जाति के हिंदुओं को अपने पाले में करने में विशेष रूप से सफल रही है.

एक समय था जब भारत एशिया में इस मामले में अपना एक अलग स्थान रखता था कि आस्था और व्यवस्था (स्टेट) दो अलग-अलग बातें हैं. अब मोदी के नेतृत्व में भारत, पाकिस्तान का हिंदू संस्करण बनता जा रहा है. इस बात को उस कुंभ मेले के जरिए भी समझा जा सकता है जिसमें दसियों लाख लोगों को शामिल होने की अनुमति तब भी दी गई जब किस बात का पूरा अंदेशा था कि देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पढ़ सकती है.

नरेंद्र मोदी की राजनीतिक सफलता की एक और वजह कमजोर और बंटा हुआ विपक्ष है. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार  है. जो कांग्रेस कभी स्वतंत्रता आंदोलन की धुरी हुआ करती थी वह अब एक परिवार की निजी संपत्ति बन चुकी है. 2014 और 2019 में अगर भाजपा बेहद आसानी से इतनी बड़ी जीत हासिल कर सकी तो इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी कि मोदी का मुकाबला उन राहुल गांधी से था जिनकी पहली और सबसे बड़ी योग्यता एक विशेष परिवार की पांचवी पीढ़ी होना है. और वे एक कुशल वक्ता भी नहीं है. लेकिन फिर भी इसकी पूरी संभावना है कि कांग्रेस 2024 का चुनाव उनके नेतृत्व में ही लड़ेगी.

और अंत में नरेंद्र मोदी जो करना चाहते हैं वह करने में उन लोकतांत्रिक संस्थानों की कमजोरी की वजह से भी सफल हुए हैं जिन पर निरंकुशता को नियंत्रण में रखने की जिम्मेदारी थी. इस मामले में सबसे ज्यादा जिम्मेदार सुप्रीम कोर्ट है. एक के बाद एक इसके कई मुख्य न्यायाधीशों ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने से इंकार कर दिया. उन्होंने राज्य द्वारा अंसंतोष के बर्बर दमन की तरफ ध्यान ही नहीं दिया. और उन इलेक्टोरल बॉन्ड्स को भी अनुमति दी जिनके जरिए सत्ताधारी पार्टी बड़े कारोबारियों को फायदा पहुंचाने के एवज में उनसे धन इकट्ठा कर सकती थी.

संविधान को समझने वाले एक विद्वान के मुताबिक मोदी सरकार में सुप्रीम कोर्ट’ एक ऐसा संस्थान बन गया है जो कार्यपालिका की भाषा बोलता है और कार्यपालिका से अलग नहीं दिखता है.’ एक दूसरे विद्वान लिखते हैं कि ‘हालिया समय में सुप्रीम कोर्ट ने टाल-मटोल कर, असत्य बोल कर और राजनीतिक स्वतंत्रता के प्रति उत्साह न दिखा कर हमें बुरी तरह से निराश किया है.’

साल 2012 में मैंने एक युवा उद्यमी के साथ लगातार कई ई-मेलों का आदान-प्रदान किया था. यह उद्यमी कांग्रेस से बहुत खफा था और शिद्दत से यह चाहता था कि नरेंद्र मोदी, जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे, भारत के अगले प्रधानमंत्री बन जाएं. पत्राचार काफी लंबा था लेकिन मैं यहां उसका एक छोटा सा हिस्सा ही रखूंगा. मेरे युवा मित्र का कहना था, ‘मुख्य तौर पर नरेंद्र मोदी हमारे लिए डेंग श्याओपिंग जैसे हो सकते हैं जिनकी आर्थिक वृद्धि के अलावा कोई और विचारधारा नहीं थी…’

मोदी की डेंग श्याओपिंग के साथ तुलना के जवाब में मेरा कहना था, ‘ न-न-न, इतनी सरल सोच वाले मत बनो और मोदी को सिर्फ इस लिहाज़ से मत देखो कि उनकी हमें जरूरत है या हम उन्हें चाहते हैं. जो कारोबार के लिए अच्छा हो कोई जरूरी नहीं है कि भारत के लिए भी अच्छा होगा. डेंग एक सच्चा देशभक्त था जबकि मोदी एक कट्टरपंथी और अहंकारी व्यक्ति हैं.’

बाद में पता लगा कि मैं एक मामले में सही नहीं था. नरेंद्र मोदी कुछ कारोबारियों के लिए अच्छे साबित हुए हैं, लेकिन अगर समूचे कारोबार की ही बात करें तो ऐसा नहीं कहा जा सकता. महामारी के दौरान जब करोड़ों लोगों की नौकरियां चली गईं तब इन कारोबारियों को अप्रत्याशित फायदा हुआ. इन कारोबारियों में गौतम अडानी और मुकेश अंबानी शामिल हैं. दोनों इत्तेफाक से मोदी के गृह राज्य गुजरात से हैं और इत्तेफाक से ही अहमदाबाद के जिस स्टेडियम का नाम नरेंद्र मोदी स्टेडियम है उसके एक एंड का नाम अदानी एंड है और दूसरे का अंबानी एंड.

मोदी तीसरी बार लोकसभा चुनाव जीतें या ना जीतें, लेकिन उन्होंने अब तक जो किया है उससे यह साफ है कि उनका शासन इस देश के लिए नुकसानदेह है. अयोग्यता, सांप्रदायिकता और व्यक्तिवाद ये उनके शासन की तीन विशेषताएं रही हैं.

महामारी की इस लहर ने दिल्ली को सबसे बुरी तरह से प्रभावित किया है. लेकिन यहां रहने वालों की पीड़ा भी मोदी को उस बेकार की परियोजना पर आगे बढ़ने से नहीं रोक सकी है जो सिर्फ उनके ही दिल के इतने करीब है. यह परियोजना है दिल्ली के परिदृश्य को बदलने की ताकि मुगलों और अंग्रेजों की शानदार आर्किटेक्चरल विरासत को भारत के नए महाराजा की व्यक्तिगत छाप से विस्थापित किया जा सके. तब जब ऑक्सीजन, हॉस्पिटल बेड, दवाइयां और वैक्सीन मिल नहीं रही हैं, लोगों का अंतिम संस्कार पार्किंग लॉट में किया जा रहा है, लोगों के घर बनने के बजाय उजड़ रहे हैं, प्रधानमंत्री के नए आवास को जरूरी सेवाओं में शामिल कर इसे बनाना जारी रखा गया है.

क्रिकेट से कोविड तक मानव जीवन का कोई भी हिस्सा हमारे प्रधानमंत्री की गिद्ध दृष्टि से बचा नहीं हैं. भारत अपने लोगों को टीका लगाने में धीमा भले रहा हो लेकिन हमारा टीकाकरण कार्यक्रम एक मायने में खास है – इसके हर सर्टिफिकेट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चित्र लगा हुआ है. सोशल मीडिया पर अपना सर्टिफिकेट पोस्ट करते हुए एक भारतीय की इस पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी थी, ‘सर मोदी जी को पता है क्या करना है, कब करना है, कैसे करना है’.

लेकिन हर व्यक्ति इतना संभलकर बोलने वाला नहीं होता. इस मामले में एक बेहद कठोर टिप्पणी यह थी कि ‘जिस तरह से वैक्सीन के सर्टिफिकेट पर मोदी का फोटो लगा हुआ है, उसी तरह से उन लोगों के डेथ सर्टिफिकेट पर भी मोदी का फोटो होना चाहिए जो कोविड की वजह से मर गए.’ यह कथन कितना भी गलत क्यों न लगे लेकिन नरेंद्र मोदी के शासन के बारे में जो कहता है उसे गलत कहना भी सही नहीं होगा.

>> सत्याग्रह को ईमेल या व्हाट्सएप पर प्राप्त करें

>> अपनी राय mailus@satyagrah.com पर भेजें

  • आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    समाज | धर्म

    आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    सत्याग्रह ब्यूरो | 19 अगस्त 2022

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    समाज | उस साल की बात है

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    अनुराग भारद्वाज | 14 अगस्त 2022

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    समाज | विशेष रिपोर्ट

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    पुलकित भारद्वाज | 17 जुलाई 2022

    संसद भवन

    कानून | भाषा

    हमारे सबसे नये और जरूरी कानूनों को भी हिंदी में समझ पाना इतना मुश्किल क्यों है?

    विकास बहुगुणा | 16 जुलाई 2022