महामारियों की दूसरी या तीसरी लहरों की दो मुख्य वजहें होती हैं जिनमें से एक का संबंध मानव व्यवहार से होता है और दूसरी का वायरसों के व्यवहार से
अंजलि मिश्रा | 07 अप्रैल 2021 | फोटो : पिक्साबे
जब देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हों, स्कूल-कॉलेजों में वार्षिक परीक्षाओं की तैयारियां चल रही हों, यातायात के तमाम साधन बहाल हो चुके हों और सड़कों-बाज़ारों पर शादियों के सीजन वाली रौनक लौट चुकी हो तो किसी के लिए भी यह मानना मुश्किल नहीं होगा कि देश में सबकुछ सामान्य चल रहा है. यह माहौल कुछ दिन पहले तक इशारा देता था कि हमने कोरोना वायरस नाम की महामारी से पार पा लिया है. लेकिन कुछ ही दिनों के भीतर स्थिति बिलकुल बदली हुई दिखाई दे रही है.
मार्च के आखिरी शुक्रवार को कोविड-19 की दूसरी लहर का पहला सबसे बड़ा झटका तब लगा जब एक ही दिन में होने वाले कोरोना संक्रमणों का आंकड़ा 62 हजार दर्ज़ किया गया, सोमवार आते-आते यह आंकड़ा 68 हजार हो गया. इससे पहले आखिरी बार अक्टूबर-2020 में एक दिन में 60 हजार मामले दर्ज किए गए थे जिसके बाद से लगातार इनमें कमी आती रही थी. दूसरी लहर के असर के बावजूद 15-16 मार्च तक भी कोविड संक्रमण के रोजाना के आंकड़ा अधिकतम 30 हजार ही था. बाद में मामले इतनी तेज़ी से बढ़े कि सिर्फ 22 से 28 मार्च के बीच यानी सात दिनों में कुल 3.90 लाख मामले दर्ज किए गए और अप्रैल का पहला हफ्ता गुज़रते-गुज़रते रोज़ाना आने वाले मामलों की संख्या एक लाख हो गई.
देश में कोविड-19 की सेकंड वेव, फर्स्ट वेव की तुलना में कितनी तेज़ी से फैली है, इसका अंदाजा लगाने के लिए कुछ और आंकड़ों पर गौर किया जा सकता है. मसलन – साल 2020 में पहली बार तीन लाख मामले 120 दिनों में दर्ज किये गये थे. जब सितंबर-अक्टूबर में पहली लहर का कहर चरम पर था तब तीन से छह लाख के आंकड़े तक पहुंचने में 26 दिनों का वक्त लगा था. अगर फरवरी के दूसरे पखवाड़े से दूसरी लहर की शुरूआत मानी जाए तो इस बार महज 17 दिनों में तीन लाख मामले दर्ज हो चुके थे. इसके बाद देश में सक्रिय मामलों की संख्या तीन लाख और बढ़ने (यानी सात से दस लाख होने) में भी मात्र 25 दिनों का वक्त लगा.
किसी राज्य के उदाहरण से कोविड की दूसरी वेव को समझें तो पहली बार की तरह, दूसरी लहर में भी कोरोना वायरस से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला राज्य महाराष्ट्र ही है. यहां पर सात दिनों के औसत मामलों का आंकड़ा देखें तो 11 फरवरी, 2021 को यह 2415 था जो 21 मार्च आते-आते 23,610 हो चुका था. यानी, महज 39 दिनों में कोरोना वायरस से एक सप्ताह में संक्रमित होने वाले लोगों का औसत आंकड़ा लगभग दस गुना हो चुका था. अगर पहली लहर से तुलना करें तो पिछली बार कोरोना वायरस को यह आंकड़ा हासिल करने में 117 दिन लगे थे. महाराष्ट्र समेत गुजरात, पंजाब, मध्य प्रदेश, दिल्ली, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, हरियाणा, राजस्थान और केरल, दस ऐसे राज्य हैं जहां पर दूसरी लहर का असर सबसे ज्यादा दिखाई दे रहा है.
सेकंड वेव और उसकी वजह
सेकंड वेव की परिभाषा पर बात करें तो किसी भी महामारी के दौरान बीच में एक ऐसा समय आता है जब संक्रमणों की संख्या घटते-घटते अचानक ही बहुत तेजी से बढ़ने लगती है. आम तौर पर सेकंड वेव के संक्रमणों का शिकार उस आयुसमूह के लोग भी होते हैं जो पहली लहर के दौरान अपेक्षाकृत सुरक्षित माने जाते हैं. किसी भी महामारी के दौरान ऐसे कई चरण आ सकते हैं और अक्सर ही दूसरी या तीसरी लहर के दौरान होने वाले संक्रमणों की प्रकृति और संख्या पिछले चरण की तुलना में अधिक भयावह देखने को मिलती है.
महामारियों के इतिहास से सीखें तो पिछली सदी यानी 1918-20 में तबाही मचाने वाला स्पैनिश फ्लू इसका सबसे सटीक उदाहरण है. इस महामारी के तीन चरण थे. हालांकि स्पैनिश फ्लू की शुरूआत के बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं है लेकिन बताया जाता है कि यह मार्च 1918 में, पश्चिमी यूरोप में उस समय शुरू हुई जब प्रथम विश्वयुद्ध अपने चरम पर था. इसकी पहली लहर संक्रमण संख्या के लिहाज से बड़ी होने के बावजूद उतनी घातक नहीं थी जितनी कि अगस्त महीने में कहर ढाने वाली दूसरी लहर. दूसरी लहर के दौरान संक्रमितों में बहुत जल्द न्यूमोनिया के लक्षण दिखाई देते थे और दो-तीन दिनों के भीतर ही उनकी मौत हो जाती थी. इसकी भयावहता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस साल सिर्फ अक्टूबर के महीने में ही अमेरिका में पौने तीन लाख लोगों की मौत हो गई थी. वहीं, जनवरी 1919 में आई इसकी तीसरी लहर भी इतनी ही घातक और संक्रामक होने के साथ-साथ इस लिहाज से भी विध्वंसक रही थी कि इसने 20 से 40 साल की आयुवर्ग के लोगों को भी अपना शिकार बनाया था जो कि इससे पहले तक अपेक्षाकृत सुरक्षित आयुसमूह माना जा रहा था. कहीं-कहीं पर मार्च-अप्रैल 1920 में स्पैनिश फ्लू की चौथी लहर का जिक्र भी मिलता है.
महामारियों की दूसरी-तीसरी लहर आने के कारणों पर गौर करें तो इसकी पहली जिम्मेदारी मानव व्यवहार पर डाली जा सकती है. जानकारों के मुताबिक महामारी के दौरान, एक लंबा समय बीतने के बाद लोग धीरे-धीरे सुरक्षा उपाय अपनाना कम कर देते हैं, उकताकर घरों से निकलने लगते हैं, आपस में मेल-जोल बढ़ाने और सार्वजनिक जगहों पर बेहिचक जाने लगते हैं. आर्थिक गतिविधियां भी सामान्य होने लगती हैं. और ये सब मिलकर वायरस को एक बार फिर से सर उठाने का मौका दे देते हैं. इसके अलावा, इसका दूसरा मुख्य कारण वायरस का म्यूटेंट हो जाना भी है. कई बार वायरस म्यूटेंट होकर और शक्तिशाली हो जाता है जिसके चलते जहां एक तरफ एक नया जनसमूह उसकी चपेट में आने लगता है, वहीं दूसरी तरफ अब तक इलाज के लिए अपनाए जा रहे उपाय भी उतने कारगर नहीं रह जाते हैं.
यहां पर संक्षेप में म्यूटेंट वायरस का जिक्र करना ज़रूरी है. पहले वायरसों की बात करें तो वायरस असल में कोशिकाओं में पाए जाने वाले अम्ल (न्यूक्लेइक एसिड) और प्रोटीन के बने सूक्ष्म जीव होते हैं. इन्हें एक जेनेटिक मटीरियल (आनुवांशिक सामग्री) भी कहा जा सकता है क्योंकि ये आरएनए और डीनए जैसी जेनेटिक सूचनाओं का एक सेट (जीनोम) होते हैं. जब कोई वायरस किसी जीवित कोशिका में पहुंचता है तो कोशिका के मूल आरएनए और डीएनए की जेनेटिक संरचना में अपनी जेनेटिक सूचनाएं डाल देता है. इससे वह कोशिका संक्रमित हो जाती है और अपने जैसी ही संक्रमित कोशिकाएं बनाने लगती है. इस प्रक्रिया में कई बार वायरस की जेनेटिक सूचनाओं में परिवर्तन आ जाता है जिसे म्यूटेंट या न्यू वैरिएंट वायरस कहा जाता है.
कुछ मौकों पर ऐसा भी होता है कि वायरस के जीनोम में होने वाला यह बदलाव दो बार हो जाता है, इस तरह के वायरस को डबल म्यूटेंट वायरस या वैरिएंट ऑफ कन्सर्न कहा जाता है. मार्च के आखिरी हफ्ते में महाराष्ट्र और केरल के कुछ इलाकों में कोरोना वायरस के दो वैरिएंट – ई484क्यू और एल452आर – मिले थे जिन्हें साउथ अफ्रीका और कैलिफोर्निया में पाए गए वैरिएंट्स से मिलता-जुलता बताया जा रहा है. हालांकि वायरसों का म्यूटेट होना कोई दुर्लभ घटना नहीं है और अक्सर ही म्यूटेशन के चलते वह अधिक संक्रामक और घातक हो जाता है, लेकिन कुछ मौकों पर इसका उल्टा भी हो सकता है. एक दिलचस्प बात यह भी है कि कई मामलों में ऐसा भी पाया गया है कि म्यूटेंट वायरस ज्यादा संक्रामक हो जाता है लेकिन उसमें शरीर को नुकसान पहुंचाने की क्षमता कम हो जाती है.
भारत इस स्थिति तक कैसे पहुंचा?
भारत के मामले में ज्यादातर जानकार मानते हैं कि देश में कोविड-19 को बहुत हल्के में लिया गया. पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के प्रमुख और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर के साईनाथ रेड्डी, इंडिया स्पेंड से हुई एक बातचीत में कहते हैं कि भारत में ‘कोविड-19 से जुड़ी सावधानियां न बरतना, भीड़ का जुटना, यात्रा करना, सेलिब्रेशन के लिए इकट्ठा होना वगैरह संक्रमण फैलने की प्रमुख वजहें हैं. आर्थिक गतिविधिया शुरू होना दूसरा कारण है. लोग लंबे समय के लिए ऑफिसेज या पब्लिक ट्रांसपोर्ट में एक साथ रह रहे हैं. प्रशासन भी सुस्त हो गया है. राजनीतिक रैलियां हो रही हैं, धार्मिक आयोजन हो रहे हैं. ऐसे में मामले बढ़ना स्वाभाविक है.’ इसी बातचीत में डॉ रेड्डी आगे बताते हैं कि भारत में हर्ड इम्युनिटी को लेकर भी लोगों को गलतफमियां है. किसी जनसमूह में हर्ड इम्यूनिटी होने का मतलब इसके एक बड़े हिस्से में – आम तौर पर 70 से 90 फीसदी लोगों में – किसी संक्रामक बीमारी से लड़ने की ताकत विकसित हो जाना है. डॉ रेड्डी कहते हैं कि ‘हर्ड इम्युनिटी को निर्वाण मत समझिए. हर्ड इम्युनिटी अभी तक डेवलप नहीं हुई है और हमें नहीं पता यह कब होगी? लेकिन राजनीतिक और औद्योगिक जगत के एक तबके को लगने लगा है कि भारत में हर्ड इम्युनिटी है. वे भी संक्रमण की बढ़ती संख्या के लिए जिम्मेदार हैं.’
प्रोफेसर रेड्डी सचेत करते हुए यह भी जोड़ते हैं कि ‘हमारे सामने कोविड-19 के म्यूटेंट स्ट्रेन्स की भी चुनौती है. अंतर्राष्ट्रीय यात्राएं शुरू होने के साथ कहीं और विकसित हुआ म्यूटेंट वायरस भी यहां पहुंच चुका है. लेकिन फिलहाल हम यह नहीं जानते कि वह संक्रमणों में वृद्धि के लिए यह कितना जिम्मेदार है क्योंकि जीनोमिक स्क्रीनिंग की सुविधा देश में उस स्तर पर मौजूद नहीं है.’ प्रोफेसर रेड्डी समेत तमाम स्वास्थ्य सलाहकार सेकंड वेव से निपटने के लिए कोरोना वायरस से बचने के लिए बताई गई सावधानियों, जैसे मास्क लगाना, हाथ धोना, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना, वगैरह का ध्यान रखने का सुझाव देते हैं. इसमें वे यह भी जोड़ते हैं कि इन शर्तों का पालन करना वैक्सीन का पहला डोज़ लगने के बाद ज़रूरी है. जहां तक वैक्सीन के जरिए म्यूटेंट वायरस से बचने का सवाल है, ज्यादातर वैज्ञानिकों का कहना है कि वैक्सीन इस तरह से ही बनाई जाती हैं कि वे वायरस के कई वैरिएंट्स का मुकाबला कर सकें.
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