बीते कुछ सालों में ऐसा कई बार हुआ जब राजनीति ने कुछ इस तरह से हमारे नायकों को ध्वस्त किया कि लोग उन्हें प्यार करने के बजाय गालियां देने लग गए
अंजलि मिश्रा | 11 मई 2021 | फोटो: ट्विटर/बॉलीवुड जर्नलिस्ट
बीती दो मई को जब पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आए तो किसी भी राजनीतिक पार्टी की जीत से ज्यादा भाजपा की हार के चर्चे हुए. इसमें पश्चिम बंगाल के बाद सबसे ज्यादा जिक्र केरल का रहा. यहां पर मेट्रोमैन ई श्रीधरन को मैदान में उतारने के बावजूद बीजेपी अपना खाता खोलने में नाकामयाब रही थी. सोशल मीडिया पर आई श्रीधरन से जुड़ी टिप्पणियों पर गौर करें तो कई लोग इसे भाजपा का दोगलापन बताते दिखे. इनका कहना था कि अपने कई उम्रदराज नेताओं को रिटायर करने वाली पार्टी ने उनसे डेढ़ दशक बड़े श्रीधरन (88 साल) को राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया. वहीं, दूसरी तरफ कुछ लोग इस बात के लिए ई श्रीधरन की आलोचना करते दिखाई दिए कि उन्होंने सत्ता की खातिर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली पार्टी का दामन थामा और कभी-कभी खुद भी उसी रंग में रंगे दिखाई दिये. उनके प्रतिद्वंद्वी शैफी परम्बिल का कहना था कि केरल में अपनी संख्या एक से दो करने की कोशिश में भाजपा श्रीधरन जैसी हस्ती का इस्तेमाल कर रही है. परम्बिल का कहना था कि अगर ई श्रीधरन भाजपा के लिए इतने ही महत्वपूर्ण हैं तो उन्हें पलक्कड़ के बजाय नेमोम से क्यों नहीं लड़ाया गया जहां से उनके चुनाव जीतने की संभावना ज्यादा थी. इस सारी कवायद का नुकसान यह हुआ कि देश की एक अमूल्य और सम्माननीय शख्सियत राजनीतिक मंचों पर छींटाकशी का शिकार बन गई और आम लोगों की नज़रों में उसकी मेट्रोमैन की छवि थोड़ी कम चमकीली हो गई. इसकी एक वजह ई श्रीधरन के कुछ बयान भी रहे जिनमें खुद को एक ऐसी पार्टी का नेता होते हुए भी मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बताना शामिल था जो इस विधानसभा चुनाव में एक सीट तक नहीं जीत सकी.
ऐसा ही एक और उदाहरण सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के सीईओ अदार पूनावाला का है जिन्हें इस समय देश में नायक की तरह देखा जाना चाहिए था. लेकिन हो इसका उल्टा रहा है. बीते साल अगस्त में पूनावाला ने अपने कई साक्षात्कारों में कहा था कि वे दिसंबर 2020 तक कोरोना वैक्सीन (कोवीशील्ड) के 30 से 40 करोड़ डोज़ बनाने की तैयारी कर रहे हैं. यह तब था जब उन्हें यह नहीं पता था कि इस वैक्सीन का ट्रायल सफल होगा भी या नहीं. उनकी इस घोषणा ने कोरोना वायरस की पहली लहर का चरम झेल रहे भारत को महामारी से पार पाने की उम्मीद दे दी थी. लेकिन बीते 2-3 महीनों में कोरोना की स्थितियां जिस तरह से बदली हैं, देश में वैक्सीन की भारी किल्लत हो गई है जो अगले कुछ महीनों तक लगातार रह सकती है.
जानकारों की मानें तो इसकी वजह कोरोना महामारी को लेकर सरकार की अदूरदर्शिता, वैक्सीन निर्माताओं को सही समय पर जरूरी मदद न दिया जाना और वैक्सीन की कई खेप विदेश भेजा जाना है. सरकार ने एक तरफ तो वैक्सीन के लिए पर्याप्त एडवांस ऑर्डर और धन नहीं दिया और दूसरी तरफ सरकारी संस्थानों के सहयोग से विकसित वैक्सीन – कोवैक्सिन – का उत्पादन सिर्फ एक और ऐसी कंपनी – भारत बायोटेक – के हवाले कर दिया जो सीरम इंस्टीट्यूट के मुकाबले न के बराबर वैक्सीन्स (सीरम इंस्टीट्यूट – करीब सात करोड़ खुराकें प्रतिमाह, भारत बायोटेक – करीब डेढ़ करोड़ प्रति माह) का निर्माण कर रही है. इसके अलावा विदेशी उत्पादकों की वैक्सीन्स को भी सही समय पर अप्रूवल नहीं दिया गया. लेकिन कई लोगों ने वैक्सीन्स की कमी के लिए सीरम इंस्टीट्यूट को जिम्मेदार ठहराया. कहा गया कि वह सरकार से धन ऐंठने के लिए जान-बूझकर संसाधनों की कमी का रोना रो रही है. पिछले दिनों वैक्सीन की कीमतों को लेकर हुए विवाद के दौरान भी सीरम इंस्टीट्यूट पर इस बात का दबाव दिखाई दिया कि वह वैक्सीन कम से कम कीमत पर केंद्र और राज्य सरकारों को दे. हालांकि उसके मुकाबले राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों के लिए कोवैक्सिन के दाम कहीं ज्यादा थे. हालात कुछ ऐसे हुए कि अदार पूनावाला को परिवार समेत देश छोड़ना पड़ गया. एक ब्रिटिश अखबार को दिए अपने इंटरव्यू में उन्हें यह तक कहना पड़ गया कि भारत में कुछ ‘ताकतवर और अमीर’ लोगों से उन्हें डर था. इसके बाद चारों तरफ पूनावाला की आलोचना होने लगी कि वे अपने देश से प्यार नहीं करते हैं और महामारी को पैसा कमाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं.
यहां पर अगर यह कहा जाए कि कोई भी देश किसी एक नायक से नहीं बनता है, अलग-अलग क्षेत्र के तमाम लोग मिलकर इसे कई तरह से बनाते-संवारते हैं तो शायद ही किसी को इस बात पर ऐतराज होगा. अलग-अलग श्रेणियों में फिट होने वाले ई श्रीधरन और अदार पूनावाला ऐसे ही नायक हैं जिन्होने अलग-अलग समय पर देश के लिए कुछ ज़रूरी और बड़ा करके उसे गौरवान्वित होने का मौका दिया. इसके साथ ही ये इस बात के भी सबसे हालिया उदाहरण हैं कि कैसे राजनीति ने हमारे नायकों से उनका नायकत्व छीना है. बीते कुछ सालों को पलटकर देखें तो ऐसे अनगिनत उदाहरण दिखाई देते हैं जब राजनीति ने कुछ इस तरह से हमारे नायकों को ध्वस्त किया कि देश और समाज का एक बड़ा तबका अब उनसे प्यार करने, उनसे प्रेरित होने या उनका सम्मान करने के बजाय उनके लिए आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल करता दिखाई-सुनाई देने लगा.
अगर सबसे लोकप्रिय चीजों से शुरू करें तो भारत में क्रिकेट और सिनेमा के लिए जो दीवानापन है, उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही मिल सकती है. पहले क्रिकेट की बात करें तो अभी आईपीएल को बीच में रोका जाना खबरों से बाहर नहीं हुआ है. इस बार यह आयोजन अपनी शुरूआत के साथ ही आलोचनाओं के घेरे में था. क्रिकेट प्रेमी दर्शकों से लेकर वरिष्ठ खिलाड़ियों तक की यही राय थी कि जब देश इतने बड़े संकट में है और चारों तरफ लोग अपनी जानें गंवा रहे हैं तब इस तरह के आयोजन का कोई तुक नहीं है. यहां तक कि अप्रैल के आखिरी हफ्ते में तीन ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों एंड्र्यू टाय, एडम ज़ाम्पा और केन रिचर्डसन ने भारत की स्थिति को दुखद बताते हुए खुद को आयोजन से अलग कर लिया था और अपने देश लौट गए थे. लेकिन यह बात समझने में क्रिकेट बोर्ड को और दस दिन लग गए. ऐसा तब है जब बीसीसीआई के प्रमुख जय शाह हैं जो केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बेटे हैं.
यहां पर इस बात का जिक्र किया जाना चाहिए कि जय शाह तो क्रिकेट को राजनीति से जोड़ते ही हैं. गौतम गंभीर का भाजपा के टिकट पर विधायक बनना, सौरव गांगुली का अपनी बेटी की सरकार विरोधी टिप्पणी को बचकाना हरकत बताना और वीरेंद्र सहवाग का लगातार सोशल मीडिया मंचों पर मोदी सरकार से जुड़ीं और हिंदुत्ववादी टिप्पणियां करते रहना भी, क्रिकेट हस्तियों के राजनीति के प्रभाव में आ जाने के उदाहरण ही हैं. ऐसा होना इसलिए ध्यान खींचता है क्योंकि ये खिलाड़ी धर्म, जाति, भाषा, राजनीतिक दल और यहां तक कि अपनी पृष्ठभूमि से परे हर तबके में एक समान लोकप्रिय और सम्माननीय होते हैं.
लेकिन हमारे ये नायक अब कई बार खुद सामने से आकर इस तरह की बातें करते हैं कि उन पर राजनीतिक प्रभाव (दबाव) में होकर या अपने किसी फायदे के लिए ऐसा करने के आरोप लगने लगते हैं. उदाहरण के लिए, फरवरी में जब इंटरनेशल पॉप स्टार रिहाना ने ट्वीट कर दुनिया को किसान आंदोलनों पर बात करने के लिए कहा और इसके बाद अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में इसकी चर्चा होने लगी तो सचिन तेंदुलकर, विराट कोहली, शिखर धवन, अनिल कुंबले, रवि शास्त्री जैसे तमाम दिग्गज सितारे इसे भारत का अंदरूनी मामला बताकर संगठित तरीके से सरकार का बचाव करते दिखाई दिए.
रिहाना के ट्वीट का जवाब देने में हमारे दिग्गज फिल्मी सितारे भी क्रिकेटरों का भरपूर साथ देते नज़र आए थे. अमिताभ बच्चन, लता मंगेशकर, अक्षय कुमार, करण जौहर, अजय देवगन, सुनील शेट्टी जैसे कई बड़े नाम इनमें शामिल किए जा सकते हैं. यहां पर दिलचस्प बात यह रही कि हैशटैग इंडिया अगेंस्ट प्रोपगैंडा का इस्तेमाल करते हुए, क्रिकेट और सिनेमा की इन तमाम हस्तियों ने जो बातें कहीं उनके न केवल मायने बल्कि शब्द भी लगभग एक जैसे ही थे. एक सी शब्दावली में, एक सी बातें करने के लिए इन्हें सोशल मीडिया पर जबरदस्त ट्रोल किया गया.
सिनेमा से जुड़ी कई और मूर्तियां इससे कई महीने पहले तब भी ध्वस्त हुई थीं जब सुशांत सिंह राजपूत की असमय मृत्यु का मामला महीनों सोशल मीडिया और मीडिया में चर्चा में रहा था. तब दीपिका पादुकोण, रणबीर कपूर, आलिया भट्ट, कियारा आडवाणी, विकी कौशल सरीखे अभिनेताओं से लेकर करण जौहर, आदित्य चोपड़ा, संजय लीला भंसाली जैसे फिल्मकार इसकी जद में आए थे. सुशांत की मौत के बाद बॉलीवुड में नेपोटिज्म होने से शुरू हुई बहस, हर बॉलीवुड सितारे को ड्रग एडिक्ट घोषित करने से गुजरती हुई, उनकी फिल्मों का बहिष्कार किए जाने तक पहुंच गई थी.
इस मसले पर राजनीति का असर दिखना तब शुरू हुआ जब मामले को अपने हाथ में लेने के लिए बिहार और मुंबई पुलिस खींचतान करती दिखाई दी थीं. इतना ही नहीं, बाद में सीबीआई, ईडी और नारकोटिक्स विभाग भी इस तस्वीर में शामिल होते चले गए. जानने वाले बताते हैं कि बिहार में आने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए और महाराष्ट्र में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के गठबंधन – महा विकास अघाड़ी – से निपटने के लिए इस मामले को खासा तूल दिया गया. इसके चलते यह मामला बिहार और महाराष्ट्र (या कहें बीजेपी और शिवसेना) के बीच राजनीतिक दंगल बनकर रह गया. इस पूरे मामले को निष्पक्ष होकर देखने वालों को अब तक यह याद होगा कि कैसे बिहार चुनाव निपटते ही सुशांत के न्याय के लिए उठने वाली आवाजें भी अचानक से गायब हो गई थीं. लेकिन इस राजनीतिक खींचतान के दौरान फिल्म उद्योग पर नशेड़ी और दुर्दांत होने का जो ठप्पा लगा या उसके सितारों की छवियों को जो नुकसान पहुंचा, उसकी भरपाई शायद ही संभव है.
फिल्मी हस्तियों का ही जिक्र चल रहा है तो इस क्रम में कुछ नाम विशेष तौर पर लिए जा सकते हैं जैसे कि प्रसून जोशी, कंगना रनोट और अनुराग कश्यप. ‘तू धूप है छम से बिखर’ जैसी लाइनें लिखने वाले गीतकार और मेकैन ऐड एजेंसी के मुखिया के तौर पर प्रसून जोशी सिनेमा और साहित्य के साथ कॉरपोरेट जगत में पहचान बनाने की चाह रखने वाले लोगों के लिए भी प्रेरणा रहे हैं. लेकिन अब यह प्रेरणा मीम बनाए जाने तक ही सीमित होती दिखने लगी है. लंदन में एक साक्षात्कार के दौरान प्रसून जोशी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कह दिया कि ‘एक फकीरी तो है आपमें.’ उनके इस कहने पर अब तक सैकड़ों मीम बनाए जा चुके हैं जो हर दिन हजारों बार शेयर किए जाते हैं. हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के प्रति प्रसून जोशी का झुकाव तो पहले भी जाहिर ही था (यह इस बात से भी ज़ाहिर था कि उन्हें लाइव ऑडियंस के सामने प्रधानमंत्री का इंटरव्यू लेने का मौक़ा मिला) लेकिन इस एक लाइन ने उन्हें सोशल मीडिया पर वायरल और फन कॉन्टेंट हो जाने तक सीमित कर दिया है. इसका अंदाज़ा उनकी पोस्ट्स पर आने वाली प्रतिक्रियाओं और फकीरी मीम्स की संख्या को देखकर आसानी से लगाया जा सकता है.
प्रसून जोशी के लिए कही जाने वाली तमाम बातें कंगना रनोट के लिए भी दोहराई जा सकती हैं. कैसे वे सोशल मीडिया पर भाजपा की अघोषित प्रवक्ता की तरह व्यवहार करती हैं और सरकार की नीतियों का बचाव करने के लिए ज्यादातर बार बेसिर-पैर की बातें भी करती दिखाई देती हैं. एक समय पर यही कंगना सिनेमा या ग्लैमर वर्ल्ड में जाने वाली लड़कियों के लिए उदाहरण की तरह इस्तेमाल की जाती थीं. घर से लड़-झगड़कर भागने वाली, फैशन और फिल्म इंडस्ट्री में तमाम तरह की मुश्किलों का सामना करने वाली और एक मकाम पर पहुंचकर, सबकी पोल खोलने वाली लड़की के तौर पर कंगना एक बड़े तबके के लिए हिम्मत का प्रतीक बन गई थीं. बाकी, अकूत अभिनय क्षमता से भरी अभिनेत्री तो वे हैं ही. लेकिन आज सरकार समर्थकों के अलावा शायद ही कोई और उन्हें पसंद करता होगा.
अनुराग कश्यप पर आएं तो यह उदाहरण बाकी दोनों से ठीक उलट दिशा में जाता दिखाई देता है. कश्यप भारतीय सिनेमा में कई बड़े प्रयोग करने, भारतीय समाज की धूसर वास्तविकताओं को परदे पर लाने और अनगिनत अनोखी-अपरंपरागत प्रतिभाओं को मौका देने के लिए जाने जाते हैं. लेकिन सोशल मीडिया पर वर्तमान सरकार के लिए आलोचनात्मक रुख अपनाने के चलते उन्हें लिबरांडू, देशद्रोही जैसे तमाम नाम तो दिए ही गए, उनकी बेटी को बलात्कार की धमकियां तक दी गईं. इसके बाद अचानक ही जब एक गुमनाम अभिनेत्री ने उन पर यौन शोषण का आरोप लगाया तो भाजपा की सहयोगी पार्टी के नेताओं से लेकर महाराष्ट्र के राज्यपाल तक अगले कुछ दिनों तक उसके साथ तस्वीरें खिंचाते नज़र आए थे. इसके अलावा उन पर सरकारी एजेंसियों के छापे पड़ने जैसी कार्रवाई भी हुई.
सिनेमा और क्रिकेट के नायकों को ध्वस्त करने वाले राजनीतिक बंटवारे ने इसकी शुरूआत हमारे बुद्धिजीवी वर्ग से की थी. समाज के एक बड़े तबके में बुद्धिजीवी निंदा और कटाक्ष का विषय हैं. उनके लिए टुकड़े-टुकड़े गैंग, लिबरांडु और सिकुलर्स जैसे तमाम शब्द गढ़ लिए गए हैं. सोशल मीडिया पर रामचंद्र गुहा, अभिजीत बनर्जी, रघुराम राजन जैसे लोगों पर जमकर कीचड़ उछाला जाता है. बुद्धिजीवियों के खिलाफ यह माहौल बनाए रखने के लिए राजनीतिक नेतृत्व भी गाहे-बगाहे इन पर तंज करने का काम करता ही रहता है. उदाहरण के लिए, खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी तारीफ करते हुए कह चुके हैं कि ‘हम हार्वर्ड वाले नहीं हार्डवर्क वाले हैं.’ हालांकि भारत में लोग बुद्धिजीवियों से नफरत क्यों करने लगे हैं, इसके कई राजनीतिक-सामाजिक पक्ष हो सकते हैं लेकिन इस तरह की टिप्पणियां यह बताने के लिए काफी हैं कि इसमें एक बड़ा योगदान राजनीति का भी है.
बुद्धिजीवियों के बराबर ही, जिस क्षेत्र के नायकों ने सोशल मीडिया पर सबसे अधिक दुर्व्यवहार सहा है, वे मीडिया से आते हैं. रवीश कुमार सरीखे पत्रकार जिनकी पहचान ही सत्ता से सवाल पूछने के चलते बनी है या राजदीप सरदेसाई जो अपने संतुलित विचारों और विनम्र लहजे में तीखे प्रश्न पूछने के लिए जाने जाते हैं, अब कथित ‘प्रेस्टिट्यूट’ मीडिया के पोस्टर बॉय बन चुके हैं. नीतियों पर सवाल उठाने वाले इन चेहरों में बरखा दत्त को भी शामिल किया जा सकता है जो एक समय पर साहस भरी पत्रकारिता का दूसरा नाम थीं. इनके नाम और तस्वीरों के साथ न जाने कितने आपत्तिजनक चुटकुले और मीम बनते देखे जा सकते हैं.
राजनीति के असर से विज्ञान-तकनीक का क्षेत्र भी अछूता रह गया हो, ऐसा नहीं है. बीते कुछ समय से भारत में वैज्ञानिक तबका इस बात की शिकायत करता दिखाई दिया है कि अनुसंधान करने के लिए उन्हें जिस तरह के राजनीतिक सहयोग की जरूरत होती है वह अवास्तविक लक्ष्यों या फिर किसी खास एजेंडे को पूरा करने की शर्त पर आसानी से मिल जाता है. फिर चाहे बात चंद सालों में स्वच्छ ऊर्जा संसाधन विकसित करने की हो या फिर आनन-फानन में कोविड वैक्सीन विकसित करने की. वैज्ञानिकों का आरोप है कि कई बार उन्हें किसी नियत तिथि, जयंती या साल तक कोई अनुसंधान पूरा कर लेने की सलाह दी जाती है या फिर उनके लिए कुछ खास विषयों जैसे आर्यभट्ट या शून्य आदि पर अनुसंधान/सेमीनार करना आसान होता है. इस तरह का सबसे ताज़ा मामला कोविड-19 के इलाज में गायत्री मंत्र के असर की खोज करने के लिए अनुदान दिए जाने का है. इस तरह के शोध और उनकी असफलता वैज्ञानिक स्वभाव वाले नागरिकों और अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक बिरादरी की नजरों में भारतीय वैज्ञानिकों की क्षमताओं को कमतर साबित करने लगते हैं. शायद यही वजह रही कि जब देश में कोरोना वायरस के लिए टीकाकरण अभियान शुरू हुआ तो शहरों में रहने वाले पढ़े-लिखे लोगों ने भी इसे आशंका की नज़र से देखा.
वैज्ञानिक गतिविधियों में राजनीतिक हस्तक्षेप का एक उदाहरण चंद्रयान-2 अभियान को भी माना जा सकता है जब अभियान के असफल होने पर प्रधानमंत्री मीडिया कैमरों के सामने, रोते हुए इसरो प्रमुख के सिवान को सांत्वना देते दिखाई दिए थे. इसके बाद हुई अपनी कई राजनीतिक रैलियों में उन्होंने इसरो स्पिरिट की भी बात की. जब चंद्रयान-2 की असफलता का इतना इस्तेमाल हो सकता तो समझदार अंदाज़ा लगा सकते हैं कि अगर यह अभियान सफल रहता तो इसका नायक कौन होता! वैसे इससे पहले ऐसा हो चुका है कि जब भारत के किसी वैज्ञानिक संस्थान ने कोई बड़ी उपलब्धि हासिल की तो उसकी घोषणा उस संगठन के बजाय खुद प्रधानमंत्री ने बड़े नाटकीय ढंग से की. ख़ास तौर पर तब जब कोई बड़ा चुनाव नज़दीक था.
इन सबके अलावा कुछ संस्थाएं भी किसी समाज और देश की नायक हुआ करती हैं. इनमें सुप्रीम कोर्ट का नाम सबसे पहले लिया जा सकता है. उच्चतम और उच्च न्यायालय बीते कुछ समय से जनहित के बजाय राजनीतिक मामलों को ज्यादा वरीयता देते दिखते हैं. उदाहरण के लिए, पिछले दिनों कोरोना संकट के दौरान ऑक्सीजन की कमी से जुड़ी याचिका की सुनवाई करने के लिए कोर्ट ने जहां एक हफ्ते का समय लिया, वहीं आत्महत्या के एक मामले में सरकार समर्थक पत्रकार अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी होने पर आनन-फानन में उनकी रिहाई का इंतज़ाम कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जजों को ऊंचे पदों से नवाज़ा जाना भी अब एक नया चलन बन गया है. साल 2014 में पूर्व सीजेआई पी सदाशिवम जहां केरल के राज्यपाल बनाए गए थे, वहीं बीते साल रंजन गोगोई को राज्यसभा सदस्य बना दिया गया. हालांकि राजनीति ऐसा करने की कोशिश हमेशा से करती रही है लेकिन अब यह इतने खुलेपन के साथ होता है कि न्याय संस्था में लोगों का विश्वास ही हिलने सा लगा है.
न्यायपालिका की तरह ही लोकतंत्र चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर भी निर्भर करता है. लेकिन पिछले कुछ समय से इस संस्था पर राजनीति के इशारों पर काम करने के आरोप लग रहे हैं. केंद्र में सत्ताधारी पार्टी की सुविधा के मुताबिक चुनाव की तारीखें घोषित करना, कई चरणों में चुनाव करवाना और आचार संहिता के उल्लंघन को नज़रअंदाज़ करने जैसी तमाम चीज़ें हैं जो अब लगभग हर चुनाव में देखने को मिलती हैं. पश्चिम बंगाल में हाल ही में संपन्न हुए चुनावों को लेकर मद्रास हाई कोर्ट का यहां तक कहना था कि राजनीतिक रैलियों में कोविड प्रोटोकॉल का जरा भी पालन न किये जाने के लिए चुनाव आयोग के ऊपर कत्ल का मामला दर्ज किया जाना चाहिए.
संस्थाओं पर ही थोड़ी और बात करें तो पिछले कुछ समय में गैर-लाभकारी संगठन (एनजीओ) और समाजसेवियों के लिए भारत में काम करना काफी मुश्किल होता गया है. सरकार ने जहां बीते दिनों विदेशी अंशदान नियमन अधिनियम जैसे कानूनों में बदलाव कर इनकी राह मुश्किल की है, वहीं इस तरह का माहौल भी बना है कि लोगों और संस्थाओं को देश के खिलाफ साजिश कर उसे तोड़ने वालों की तरह देखा जाने लगा है. आज हालत ये है कि पिछले दिनों जब सरकार ने खुद चाहा कि कोविड-19 से निपटने में गैर-सरकारी संगठन सरकार की मदद करें तो सरकार के ही बनाए कानूनों के चलते वे काफी असहाय नज़र आए.
आखिर में भारतीय राजनीति के नायकों का जिक्र करें तो विपक्ष के सबसे बड़े चेहरे यानी राहुल गांधी तो सालों पहले ही ‘पप्पू’ घोषित हो चुके हैं. राजनीति को थोड़ा भी समझने वाले कह-बता सकते हैं कि राहुल गांधी न चतुर वक्ता हैं, न कुटिल रणनीतिकार और न ही पार्टी संगठन को उनके समय में कोई मजबूती मिल पाई है. इसके साथ ही, फिलहाल भारत में विपक्ष का जो हाल है वह भी यह बताने के लिए काफी लगता है कि क्यों राहुल गांधी की छवि को इतनी आसानी से स्थापित होने से पहले ही बिगाड़ा जा सका है. लेकिन उन्हें छोड़कर अगर देश के ‘एकमात्र विकल्प’ कहे जाने वाले नरेंद्र मोदी का जिक्र करें तो कोरोना महामारी के दौरान बिगड़ी परिस्थितियों ने उन्हें भी देश का हीरो नहीं रहने दिया है. वह छवि जिसे प्रधानमंत्री मोदी नोटबंदी, जीएसटी, अर्थव्यवस्था की लचर हालत, छात्र आंदोलनों, दिल्ली दंगों और यहां तक कि लॉकडाउन के कहर के बाद भी संभाले रख पा रहे थे, उसमें अब दरारें पड़ चुकी हैं. कहना यह चाहिए कि बीते सालों में राजनीति ने हमारे तमाम नायकों को धराशायी कर जिस एक नायक को स्थापित करने की पूरी कोशिश की, अब उसकी मूर्ति को भी टिके रहने के लिए ज़रूरी आधार नहीं मिल पा रहा है.
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